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भारतीय संस्कृति में तप-साधना तप का महत्त्व :
भारतीय संस्कृति में तप के महत्त्व को अधिक स्पष्ट करते हुए काका कालेलकर लिखते हैं - "बुद्ध कालीन भिक्षुओं की तपश्चर्या के परिणाम-स्वरूप ही अशोक के साम्राज्य का और मौर्यकालीन-संस्कृति का विस्तार हो पाया. शंकराचार्य की तपश्चर्या से हिन्दू धर्म का संस्करण हुआ. महावीर की तपस्या से अहिंसा-धर्म का प्रचार हुआ. चैतन्य महाप्रभु, जो मुखशुद्धि के हेतु एक हर्र भी मुंह में नहीं रखते थे, उनके तप से बंगाल में वैष्णव संस्कृति विकसित हुई.
यब सब तो भूतकाल के तथ्य हैं, लेकिन वर्तमान युग का जीवन्त तथ्य है-गांधीजी और अन्य भारतीय नेताओं का तपोमय जीवन, जिसने अहिंसा के माध्यम से देश को स्वतन्त्र कराया. वस्तुतः तपोमय जीवन प्रणाली ही भारतीय-संस्कृति का उज्ज्वलतम पक्ष है और उसके बिना भारतीय-संस्कृति को चाहे वह जैन, बौद्ध या हिन्दू संस्कृति हो, समुचित रूप में समझा नहीं जा सकता. आज यहाँ हम तप के महत्त्व, लक्ष्य, प्रयोजन एवं स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न भारतीय साधना पद्धतियों के दृष्टिकोणों को देखने एवं उनका समीक्षात्मक दृष्टि से मूल्यांकन करने का प्रयास करेंगे. जैन धर्म में तप का स्थान :
चरम तीर्थंकर भगवान महावीर का साधना-मय जीवन ही जैन-साधना में तप के स्थान का निर्धारण करने हेतु एक सबलतम साक्ष्य है. महावीर के साधनामय जीवन के साढ़े बारह वर्षों में लगभग ११ वर्षों का समय तो उनके निराहार उपवासों के समय का योग (जोड़) होगा. महावीर का यह पूरा साधना-काल स्वाध्याय, आत्म-चिन्तन, ध्यान और कायोत्सर्ग की साधना से युक्त रहा है. जिस धर्म का शास्ता अपने जागृत जीवन में तप का ऐसा उज्ज्वलतम उदाहरण प्रस्तुत करता हो, उसकी शासन पद्धति तप-शून्य कैसे हो सकती है. उस शास्ता का तपोमय जीवन अतीत जीवन से वर्तमान तक के जैन साधकों को तपसाधना की प्रेरणा देता रहा है. आज भी जैन साधकों में सैंकड़ों ऐसे मिलेंगे जो ८-१० दिन ही नहीं, वरन् एक माह और दो-दो माह तक केवल उष्ण जल (गर्म पानी) के आधार पर रहकर तप-साधना करते हैं. ऐसे अनेक साधक होंगे, जिनके भोजन के दिनों का योग वर्ष में २-३ माह से अधिक नहीं होगा. वे शेष सारा समय उपवास आदि तपस्या में व्यतीत करते हैं. विगत वर्षों में जयपुर और बैंग्लोर में दो बहनों ने केवल उष्ण जल के आधार पर १६५ दिन के उपवास किए हैं, जो न केवल तप साधना का उच्चतम रिकार्ड प्रस्तुत करता है, अपितु आज भी हमें महावीर के युग की तप साधना की स्मृति करा देता है.
जैन धर्म में अहिंसा, संयम और तप मिलकर ही धर्म के समग्र स्वरूप को उपस्थित करते हैं. संयम और तप अहिंसा की दो पांखें है जिसके बिना अहिंसा साधना की गति अवरुद्ध हो जाती है, अहिंसक चेतना कुंठित सी होने लगती है. तप एवं त्याग के अभाव में अहिंसा
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