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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन व्यवहार १११ वैराग्य की जागृति के लिए तो मात्र एक ही चिन्तन चाहिये और एक ही चिन्तन आपके अन्दर यदि आ गया तो सारी चिन्ताओं को नष्ट कर देगा. मुनि राजऋषि मिथिला के बहुत बड़े राजा थे. एक बार एक ऐसी भयंकर व्याधि त्राणज्वर से वे ग्रस्त हुए कि उनके शरीर में भयंकर गर्मी उत्पन्न हो गई. सारा शरीर तपने लगा. बड़ी बेचैनी और अशांति रहने लगी. बड़े-बड़े वैद्य उपचार के लिए आए. एक अनुभवी वैद्य ने उपचार बताया- यदि आप शीतोपचार करें यानि चन्दन का विलेपन सारे शरीर पर करें तो यह त्राण ज्वर मिट सकता है. राजा के आठ रानियां थी. आठों रानियां वैद्य के बताये अनुसार चन्दन घिसने लगी. घिसते समय उनके हाथों में जो चूडियां पहनी हुई थी, उसकी आवाज आने लगी. आवाज आना स्वाभाविक था. आप जानते हैं कि बीमार आदमी का स्वभाव चिड़चिड़ा होता है. राजा बहुत दिनों से बेचैन थे और काफी दिनों से नींद भी नहीं आई थी. चूड़ियों की आवाज ने उनकी शान्ति को और भंग कर दिया तो सम्राट एक दम आवेश में आकर उत्तेजित हो गये और कहा-“यह वज्रपात कहाँ हो रहा है?" इसे बन्द करो. यह आवाज मुझे जरा भी पसंद नहीं. रानियों के पास विवेक था. उन्होंने सोचा महाराज को आवाज जरा भी पसंद नहीं है. क्या किया जाय कि महाराज को चूड़ियों की आवाज भी सुनाई न दे और उपचार हेतु चन्दन भी घिस कर तैयार हो जाये. ऐसी अवस्था में उन्होंने तुरन्त चूड़ियां हाथों से निकाल ली. मात्र सुहाग की निशानी हेतु एक एक चूड़ी ही अपने हाथ में रखी. दो मिनट बाद राजा ने पूछा- यह आवाज कैसे बंद हो गई? क्या चन्दन घिसना ही बन्द कर दिया? रानियों ने नम्र निवेदन किया- राजन्! दवा तो हम तैयार कर रही हैं. चन्दन घिसा जा रहा है. चूंकि यह आवाज आपको पसंद नहीं थी अतः हमने हमारे हाथ की चूड़ियां निकाल दी. मात्र एक चूड़ी रखी जो सुहाग की निशानी है. जैसे ही यह जवाब मिला, राजा ने तुरन्त दार्शनिक दृष्टि से उसका चिन्तन शुरू किया कि एक में शान्ति. अनेक में अशान्ति. मात्र एक चूड़ी हाथ में हो तो कहीं कोई संघर्ष नहीं, आवाज नहीं कोई क्लेश नहीं, बल्कि परम शान्ति है. अनेक में संघर्ष था, क्लेश था. राजा ने तुरन्त आत्म चिंतन किया कि मैं संसार के संघर्षों से जकड़ा हुआ हूँ. यही मेरी अशान्ति का कारण है. यही भाव मेरे मन के द्वेष का है कि मेरे मनोभाव में यह क्लेश पैदा हो रहा है, अशांति हो रही है. कितनी उद्विग्नता लेकर मैं चल रहा हूँ? इसलिए इस रोग से यदि मैं मुक्त हो गया व इस बिमारी से मैं बच गया तो परमात्मा के चरणों में जाकर परम शान्ति प्राप्त करूँगा. यही शुद्ध एकत्व भाव उनके उपचार का कारण बना. For Private And Personal Use Only
SR No.008716
Book TitleJivan Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1995
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size7 MB
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