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जीवन दृष्टि विचार की पवित्रता :
आप बाजार में जा रहे हैं. सामने से आपको डाक्टर आता दिखाई दे तो आपको हॉस्पीटल याद आ जाता है. वकील मिलने पर कोर्ट याद आ जाता है. पुलिस मिलने पर जेल याद हो आती है, विद्यार्थी मिलने पर कॉलेज याद आ जाता है.
यदि मैं आपसे पूंछु कि साधु पुरुषों को देखकर आपके मन में क्या भाव आता है? उनको देखकर आपकी दृष्टि कहाँ तक पहुंच जायेगी, मुझे समझाइये? परन्तु आपकी दृष्टि में गहराई नहीं है. कभी इस प्रकार से सोचने का प्रयास किया ही नहीं. परमात्मा को देखने से यदि दृष्टि मिल जाय तो यह दृष्टि का विकार निकल जायेगा. निर्विकारी आत्मा की दृष्टि से अपनी दृष्टि मिलाये तो आपकी दृष्टि का विकार चला जायेगा. उसके परमाणुओं द्वारा इतना बड़ा परिवर्तन होता है. परन्तु यह स्थिति कहाँ? दृष्टि में गहराई कहाँ ? साधु पुरुषों को देखकर आपकी दृष्टि परलोक तक पहुंचनी चाहिये. परन्तु आप अपने जीवन को दुर्गति तक पहुंचा रहे है, यह सद्गति और दुर्गति आप अपने वर्तमान में तैयार करते हैं और आपका विचार ही उसका निमित्त बन रहा है. विचार की अपवित्रता ही दुर्गति का कारण बनती है. विचार की पवित्रता आपको सद्गति तक पहुंचाती है.
प्रसन्नचन्द्र जैसे राजऋषि, जिन्होंने दीक्षा ग्रहण कर उत्कृष्ट चरित्र की आराधना की और जब सम्राट श्रेणिक ने आकर भगवान महावीर से पूछा, 'भगवन्! इस समय आपके साधुओं में सबसे उत्कृष्ट साधना करने वाला कौन है?'
भगवान ने उत्तर दिया - वर्तमान में हमारे साधुओं में सबसे उत्कृष्ट साधना करने वाले साधक प्रसन्नचंद्र राजर्षि हैं.
श्रेणिक ने पुनः पूछा- 'भगवन्, यदि वे परलोक पहुंचे तो उनकी गति क्या होगी?' 'इस समय देवलोक हो तो मर कर सांतवी नर्क में जायेंगे.' इस पर राजा श्रेणिक ने जिज्ञासा से पूछा - "भगवन् यह कैसे हो सकता है?" कुछ ही देर बाद देव दुन्दुभी बजी. आकाश में देवताओं ने प्रसन्नचंद्र राजर्षि को केवल ज्ञान प्राप्त करने का महोत्सव किया. जब यह देव दुन्दुभी का नाद सुना तो श्रेणिक ने भगवान् से पूछा - यह देव दुन्दुभी का क्या रहस्य है? यह प्रसन्नचंद्र राजर्षि को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ, उसका नाद है.
एक क्षण पहले तो कहाँ प्रसन्नचंद्र राजर्षि सांतवी नरक में जाने वाले थे और अव उन्हें एक क्षण वाद ही केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गई: अन्तर सिर्फ इतना ही कि उनके मन में तूफान था. मन के अन्दर युद्ध चल रहा था. भयंकर संघर्ष था जिसकी वजह से कर्म दुषित बन गये
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