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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन व्यवहार ११३ थे. यदि उस समय वह काल कर जाये तो निश्चित ही दुर्गति में चले जायें, परन्तु जैसे ही उनका हाथ अपने मस्तक पर गया और जव उन्होंने देखा कि अरे! मैं साधु हूँ, राजा नहीं, मेरे मस्तक पर अव राज मुकट नहीं हैं. वह सतर्क हुए. अन्तर्मन में जागृति आयी. अन्तर का पश्चाताप इतने सुन्दर भाव से प्रकट हुआ कि उसका यह चमत्कार कि एक क्षण के अन्दर वे केवली ज्ञान की स्थिति में पहुंच गये. 'मनएव मनुसयानाम कारणे वन्द मोक्षये.' यह मन सद्गति और दुर्गति का कारण बनता है. मन एक है. कारण एक है और कार्य दो हैं. आप तिजोरी खोलते हैं, चाबी एक है. बन्द उसी से किया जाता है और इसी से खोला भी जाता है. इस मन की चाबी भी ऐसी है. संसार में बन्धन इसी के माध्यम से होता है. और यदि चाबी लगाना आ जाये तो यह मोक्ष का द्वार भी खोल देती है. यदि राइट टर्न किया तो खुल जायेगा. मन का उपयोग भी यदि सही तरीके से किया जाय तो भगवान का द्वार खुल जाता है, सबसे बड़ा ठग : एक बार संत तुलसीदास ने कहा कि मैं आज से राम को नमस्कार नहीं करूँगा. आज से मैं उस व्यक्ति को नमस्कार करूँगा जो जगत में सबसे बड़ा ठग होगा. लोगों ने सोचा कि ये क्या हो गया. संत तुसलीदास ऐसा क्यों कह रहे हैं कि सबसे बडे ठग को नमस्कार करूँगा. पूछने पर संत तुलसीदास ने स्पष्ट कियामाया तो ठगनी भयी, ठगत रहत दिन रात । जिसने माया को ठगा, उस ठग को नमस्कार ।। माया का मतलब है कर्म, जिसने कर्म को ही ठग लिया, जिसने पाप को ही लूट लिया, उस ठग को नमस्कार. वह वीतराग प्रभु के अलावा अन्य कोई है ही नहीं जो कर्म को भी ठग ले, जो पाप को भी खत्म कर दे. पाप की वासना से अपने आप को मुक्त कर ले. ठगाई करनी है तो ऐसी ठगाई करे. जवकि हम तो अपनी आत्मा को ही ठगते हैं. मन कहे कि पाप करना है, उसे समझाइये कि आज नहीं कल करेंगे. आप पाप में जितना विलंब करेंगे, पाप उतना ही कमजोर बनेगा. जबकि हमारी आदत है कि पाप आज करना है, पुण्य फिर कभी करेंगे. पाप रोकर के करना है, पुण्य हँस कर करना है. इसकी जगह पाप हँस करके कर है और पुण्य करते समय चेहरे पर उदासी के भाव ले आते है कि कहाँ से देने का प्रसंग आ गया. बुद्धि का दुरूपयोग : हर इन्सान के पास बुद्धि तो है किन्तु आज व्यक्ति इसका उपयोग अनीति, अप्रमाणिकता के लिए करता है.पाप छिपाने के लिए करता है. यह बुद्धि का अतिरेक हमारे जीवन में अभिशाप For Private And Personal Use Only
SR No.008716
Book TitleJivan Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1995
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size7 MB
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