________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जीवन दृष्टि भंगी ने हाथ जोड़कर विनय पूर्वक कहा :- ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापर" क्या यह महावाक्य आपने कभी सुना है?"
शंकराचार्य :- “अरे यह तो मेरा प्रियतम वाक्य है. हजारों को मैंने यह वाक्य सुनाया हैसमझाया है. इस वाक्य की सिद्धि के लिए शास्त्रार्थ करके सर्वत्र दिग्विजय प्राप्त की है और तू मुझसे ही पूछ रहा है कि क्या मैंने यह वाक्य सुना है!"
भंगी ने हँसते हुए कहा :- “आपने यह वाक्य लोगों को सुनाया होगा, समझाया होगा, शास्त्रार्थ भी किया होगा, परन्तु मैं समझता हूँ कि आपने स्वयं इसे समझने की कोशिश नहीं की, अन्यथा आप वह बात न कहते जो आपने मुझसे अभी कही है."
शंकराचार्य चकित होकर पूछने लगे :- “तुम कहना क्या चाहते हो? जरा साफ-साफ कहो." भंगी :- “देखिये, आपके उस महावाक्य के अनुसार ब्रह्म ही सत्य है और जीव ही ब्रह्म है, इसलिए जो ब्रह्म आपके शरीर में है, वही मेरे शरीर में है, सोचने की बात यह है कि मेरे शरीर के स्पर्श से अपवित्र कौन हुआ - आपका ब्रह्म या आपका शरीर? ब्रह्म तो सबका पवित्र है और शरीर सबका अपवित्र है, क्योंकि वह मलमूत्र, हड्डियों से और खून से भरा हुआ है. इस प्रकार पवित्र ब्रह्म ने अपने अपवित्र शरीर से किसी दूसरे ब्रह्म के अपवित्र शरीर को छू भी लिया तो ऐसा कौन-सा पहाड़ टूट गया, जिससे आपका ब्रह्म व्याकुल होकर दुबारा स्नान करने की जरुरत महसूस करने लगा?”
बड़े-बड़े शास्त्रार्थ महारथियों को परास्त करने वाले शंकराचार्य इस भंगी के सामने निरुत्तर हो गये. उन्होंने भंगी को प्रणाम करके कहा :- “मैं आपका बहुत कृतज्ञ हूँ कि आपने मुझे सच्चा ज्ञान देकर मेरा उद्धार किया. अब मैं दुबारा स्नान न करके सीधे आश्रम ही जाऊँगा."
शंकराचार्य का यह साहस प्रशंसनीय है कि उन्होंने एक साधारण हरिजन के मुँह से निकली हुई सच्ची बात को सिर झुका कर स्वीकार किया.
ज्ञान केवल शास्त्रार्थ के लिए नहीं होता. जब तक उसका प्रत्यक्ष प्रयोग जीवन में न दिखाई दे, तब तक बौद्धिक व्यायाम से अधिक उसका कोई मूल्य नहीं है. तत्त्वार्थसूत्र में :"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।।"
इस सूत्र के द्वारा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बाद सम्यक चारित्र को मोक्ष का मार्ग बताया गया है. चरित्र का अर्थ है - ज्ञान और दर्शन के अनुसार आचरण करना. आचरण के बिना ज्ञान हो या दर्शन; सब मूल्य हीन है. यही बात संक्षेप में उस हरिजन ने अपनी मधुर तर्कपूर्ण वाणी के द्वारा शंकराचार्य को समझाई थी.
For Private And Personal Use Only