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मितभाषिता: एक मौन साधना प्रमाद का परिणाम :
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एक राजा की सेज पर, झाडु लगाने वाली एक दासी लेट गई, यह जानने के लिए कि उस पर लेटने से कैसा सुख मिलता है. ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी. शयनकक्ष का सुगन्धमय एकान्त शान्त वातावरण था. थकी हुई दासी को लेटते ही नींद आ गई.
थोड़ी देर बाद राजा और रानी का शयनकक्ष में प्रवेश हुआ. दासी को अपनी सेज पर देखकर राजा के दिमाग का पारा सातवें आसमान तक चढ़ गया. उसने छड़ी उठाकर उससे दासी की धुलाई कर दी. दासी पिटाई चुपचाप (सेज के नीचे उतर कर ) सहती रही. जबा राजा पीटतेपीटते थक गया, तब अचानक दासी खिलखिला कर हँस पड़ी.
राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि ऐसा अनुभव उसे जीवन में पहली बार आया था. पिटाई खाकर सभी रोते थे, किन्तु वह दासी खिलखिला कर हँस रही थी !
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राजा को हँसने का कारण बहुत कुछ सोचने पर भी जब समझ में नहीं आया, तब उसने दासी से पूछा.
भारक्खमेवपुत्
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दासी ने कहा :- “राजन्! मैं यह सोच रही थी कि केवल पांच-दस मिनिट तक जिस शय्या पर लेटने से मुझे सौ डेढ सौ प्रहार प्राप्त हुए, और जो छह-सात घंटे तक हर रोज वर्षों से सोते रहे हैं, उन्हें कितने प्रहार सहने पड़ेंगे ? उतने प्रहारों के बाद आप दोनों की जो दुर्दशा होगी, उसकी तुलना में मुझ पर पड़े प्रहारों से मेरी जो दुर्दशा हुई है, वह कितनी कम है ? यही कल्पना मेरी हँसी का कारण है, बस और कुछ नहीं. "
बात जरा सी थी, किन्तु वह राजा के अन्तस्थल को छू गई. न जाने क्या कल्पना करके राजा कांप उठा. उसने तत्काल संन्यासी बनने का संकल्प ले लिया. दूसरे दिन सारा राजपाट पुत्र को सौंप कर वह संन्यास के लिए, तपस्या के लिए - आत्म कल्याण के लिए चल पड़ा. कहा है :
जो निज-भारं ठवेइ निच्चितो ।
न य साहेइ सकज्जं
सो मुक्खसिरोमणी भणिओ । ।
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( जव पुत्र गृह प्रबन्ध का भार संभालने योग्य हो जाय, तब भार उसे सौंप कर निश्चित होकर जो स्वकार्य (आत्म कल्याण) की साधना नहीं करता, उसे मूर्खशिरोमणि कहा गया हैं.)
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दासी ने यदि अपनी बात नहीं कही होती तो राजा संन्यासी नहीं बनता. ठीक समय और ठीक स्थान पर कहे गये ठीक शब्दों से राजा का हृदय परिवर्तन हो गया. उसकी जीवनचर्या वदल गई.