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भारतीय संस्कृति में तप-साधना कठोर अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है. बौद्धसाधना में तप का अर्थ है-चित्त शुद्धि का सतत प्रयास. बौद्ध साधना तप को प्रयत्न का प्रयास के अर्थ में ही ग्रहण करती है और इसी अर्थ में बौद्धसाधना तप के महत्त्व को स्वीकार करके चलती है. भगवान बुद्ध महामंगल सुत्त में कहते हैं“तप ब्रह्मचर्य आर्यसत्यों का दर्शन और निर्वाण का साक्षात्कार, ये उत्तम मंगल हैं. इसी प्रकार कासिभारद्वाज सुत्त में भी तथागत कहते हैं-मैं श्रद्धा का भी बीज बोता हूँ, उस पर तपश्चर्या की वृष्टि होती है. शरीर और वाणी पर संयम रखता हूँ और आहार से नियमित रहकर सत्य के द्वारा मन के द्वारा मन के दोषों की गोडाई करता हूँ.” दिद्विवज्ज सुत्त में शास्ता कहते हैं-किसी तप या व्रत के करने से किसी के कुशल धर्म बढ़ते हैं, अकुशल धर्म घटते हैं, तो उसे अवश्य करना चाहिए. स्वयं बुद्ध अपने को तपस्वी कहते हैं. बुद्ध का स्वयं का जीवन कठिनतम तपस्याओं से भरा हुआ है. उनके अपने साधना काल एवं पूर्व जन्मों का इतिहास एवं वर्णन, जो हमें बौद्ध आगमों में उपलब्ध होता है, उनके तपोमय जीवन का साक्षी है, मज्झिमनिकाय, महासीहनाद सुत्त में बुद्ध सारिपुत्त से अपनी कठिन तपश्चर्या का विस्तृत वर्णन करते हैं. यही नहीं सुत्तनिपात के पावज्जा सुत्त में बुद्ध बिंबिसार महाराज श्रेणिक से कहते हैं-अब मैं तपश्चर्या के लिए जा रहा हूँ. उस मार्ग में मेरा मन रमता है.
यद्यपि उपरोक्त तथ्य बुद्ध के जीवन की तप-साधना के महत्त्पूर्ण साक्षी है, फिर भी यह सुनिश्चित है कि बुद्ध ने तपश्चर्या के द्वारा देह-दण्डन की प्रक्रिया को निर्वाण की उपलब्धि में आवश्यक नहीं माना. लेकिन, उसका अर्थ केवल इतना ही है कि बुद्ध मात्र अज्ञान युक्त देह-दण्डन को निर्वाण के लिए उपयोगी नहीं मानते थे ज्ञान समन्वित तप-साधना उन्हें स्वीकृत थी. श्री भरतसिंह उपाध्याय के शब्दों में - “गौतम बुद्ध की तपस्या में मात्र शारीरिक यंत्रणा का भाव बिल्कुल नहीं था, किन्तु वह सर्वथा सुख-साध्य भी तो नहीं थी." डॉ. राधाकृष्णन का कथन है “यद्यपि बुद्ध ने कठोर तपश्चर्या की आलोचना की, फिर भी यह आश्चर्य जनक है कि बौद्ध श्रमणों का अनुशासन किसी भी ब्राह्मण ग्रंथ में वर्णित अनुशासन (तपश्चर्या) से कम कठोर नहीं है, यद्यपि शुद्ध सैद्धांतिक दृष्टि से वे निर्वाण की उपलब्धि तपश्चर्या के अभाव में भी संभव मानते हैं, फिर भी व्यवहार में तप उनके अनुसार आवश्यक प्रतीत होता है."
बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद भी बौद्ध भिक्षुओं में धूतंग (जंगल में रहकर विविध प्रकार की तपश्चर्या करने वाले) भिक्षुओं का महत्त्व काफी अधिक था. विसुद्धिमग्ग एवं मिलिन्दप्रश्न में ऐसे धूतंगों की प्रशंसा की गई है. दीपवंश में कश्यप के संबंध में लिखा है कि वे धूतवादियों के अग्रगण्य थे - "धूतवादानं वग्गो सो कस्सपो जिनशासने." मेरी दृष्टि में यह सब तथ्य बौद्ध धर्म में तप का क्या स्थान रहा है, इसे बताने के लिए पर्याप्त है.
तप यदि नैतिक जीवन की एक अनिवार्य प्रक्रिया है, तो उसे किसी लक्ष्य के निमित्त होना चाहिये. अतः यह निश्चय कर लेना भी आवश्यक है कि तप का उद्देश्य क्या है?
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