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जीवन दृष्टि
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जैन - साधना का लक्ष्य शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि है, आत्म-शुद्धिकरण है लेकिन यह शुद्धिकरण क्या है ? जैन-दर्शन यह मानता है कि प्राणी कायिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं के माध्यम से कर्म-वर्गणाओं के पुद्गलों को अपनी और आकर्षित करता है और ये आकर्षित कर्म-वर्गणाओ के पुद्गल राग-द्वेष या कषाय-वृत्ति के कारण आत्मा से एकीभूत हो, उसको शुद्ध सत्ता, शक्ति एवं ज्ञानज्योति को आवृत्त कर देते हैं. यह जड़ एवं चेतन तत्त्व का संयोग ही विकृति है, विभाव है, बंधन है.
अतः शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि के लिए आत्मा के शुद्ध स्वरूप को आवृत्त करने वाले कर्म-वर्गणाओं के पुद्गलों का पृथक्करण की यह क्रिया निर्जरा कही जाती है, जो दो रूपों में संपन्न होती है. जग कर्मवर्मणा के पुद्गल अपनी निश्चित समयावधि के पश्चात अपना फल देकर स्वतः अलग हो जाते हैं, तो यह सविपाक निर्जरा कहलाती है. लेकिन यह साधना का मार्ग नहीं है. साधना तो सप्रयासता में है. जब प्रयासपूर्वक कर्म - पुद्गलों को आत्मा से अलग किया जाता है, तो उसे अविपाक निर्जरा कहते हैं. और जिस प्रक्रिया के द्वारा यह अविपाक निर्जरा की जाती है, वही तप है.
इस प्रकार तप का प्रयोजन है- प्रयासपूर्वक कर्म पुद्गलों को आत्मा से अलग कर उसके स्वरूप को प्रकट करना. शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि से आत्मा के विशुद्धिकरण की यह प्रक्रिया है. भगवान महावीर तप के संबंध में कहते हैं कि “ तप आत्मा के परिशोधन की प्रक्रिया है. आबद्ध कर्मों के क्षय करने की पद्धति है. तप से महर्षिगण पूर्व संचित कर्मों को नष्ट कर देते हैं. तप, राग-द्वेष जन्य- पाप कर्मों के बंधन को क्षीण करने का मार्ग है.
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर जैन-साधना में तप का उद्देश्य आत्म-परिशोधन - पूर्वबद्ध कर्म पुद्गलों को आत्म-तत्त्व से अलग करना और शुद्ध आत्म-तत्त्व प्रकट करना ही सिद्ध होता है.
हिन्दू साधना में तप का स्थान :
हिन्दू साधना मुख्यतः औपनिषदिक साधना का लक्ष्य आत्मा या ब्रह्म की उपलब्धि रहा है. औपनिषदिक विचारणा स्पष्ट रूप से उद्घोषण करती है " तप से ब्रह्म को खोजा जाता है. तपस्या से ही ब्रह्म को जानो यहीं नहीं, औपनिषदिक विचारणा में भी जैन विचारणा के समान तप को शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि का साधन माना गया है. मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है - इस आत्मा को (जो ज्योतिर्मय और शुद्ध है) तपस्या और सत्य के द्वारा ही जानी जा सकती है.
औपनिषदिक परम्परा भी जैन - परम्परा के समान ही यह मानती है कि तप के द्वारा कर्मरज दूर कर मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है. मुण्डकोपनिषद् के दूसरे मुण्डक का ११ वां श्लोक इस संदर्भ में विशेष रूप से द्रष्टव्य है. उसमें कहा गया है- “जो शान्त विद्वद्जन वन
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