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भारतीय संस्कृति में तप-साधना में रहकर भिक्षाटन करते हुए तप और श्रद्धा का सेवन करते हैं, वे विरज हो-कर्म रज को दूर कर सूर्य द्वारा उर्ध्व मार्ग से वहाँ पहुंच जाते हैं, जहाँ वह पुरुष (आत्मा) अमूल्य एवं अव्यय होकर निवास करता है.
हिन्दू विचारणा में जहाँ तप आत्म-शुद्धि का साधन माना गया है, वहाँ उसके द्वारा होने वाली शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि के महत्त्व को भी अंकित किया गया है. उसका सम्बन्ध आध्यात्मिक जीवन के साथ ही भौतिक जीवन से भी जोड़ा गया है. महर्षि पतंजलि योग-सूत्र में लिखते हैं - "तप से अशुद्धि का क्षय होने से शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि (सिद्ध) होती
बौद्ध साधना में तप का प्रयोजन पापकारक अकुशल धर्मों को तपा डालना माना गया है. इस सन्दर्भ में बुद्ध और निर्ग्रन्थ उपासक सिंह सेनापति का संवाद पर्याप्त प्रकाश डाल देता है. बुद्ध कहते हैं - "हे सिंह! एक पर्याय ऐसा है, जिससे सत्वादी मनुष्य मुझे तपस्वी कह सके. यह पर्याय कौनसा है? हे सिंह! मैं कहता हूँ कि पापकारक अकुशल धर्मों को तपा डाला जाय. जिसके पाप कारक अकुशल धर्म गल गये, नष्ट हो गये, फिर उत्पन्न नहीं होते, उसे मैं तपस्वी कहता हूँ.” इस प्रकार बौद्ध साधना में भी जैन साधना के समान, तप को आत्मा की अकुशल चित्तवृत्तियों को क्षीण करने हेतु स्वीकार किया गया है.
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