________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
ध्यान और साधना
ध्यान से ध्येय तक :
जिनेश्वर के सन्देश को पोस्टमेन की तरह आपके पास पहुंचाने का कार्य मेरे गुरुदेव के द्वारा मुझे सौंपा गया है. श्रमण होने से उस कार्य की पूर्ति का श्रम मैं कर रहा हूँ. आप श्रावक हैं- सुनने वाले. सुनकर आपको यह विचार करना है कि संसार के बन्धन से किस प्रकार मैं अपनी आत्मा को मुक्त करूँ. साधना के द्वारा किस प्रकार अपने उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करूँ. शुक्लध्यान की प्राप्ति के लिए किस प्रकार प्रयत्नशील बनूँ... आदि.
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
परमात्मा का ध्यान करने से पहले अपने मन को विषय वासना से और कषायों से मुक्त करना जरुरी है. परमात्मा ही हमारा ध्येय है, ध्यान के द्वारा ध्येय तक हमें पहुंचना है. हमारे विचार, आचार, कार्य, व्यवहार सब ध्येय के अनुकूल होने चाहिये. साधना में सहायक होने चाहिये.
स्व-पर कल्याण की कामना साधक के रोम-रोम में समाई हुई रहनी चाहिये. परोपकार उसका स्वभाव बन जाना चाहिये प्राणिमात्र के लिए उसके हृदय में सहानुभूति होनी चाहिये. जिससे दूसरों के दुःख को वह अपना दुःख समझकर उसे दूर करने का प्रयास कर सके.
मन की एकाग्रता :
ऐसी करुणा भावना ही ध्येय की प्राप्ति का कारण बन जाती है. मन की एकाग्रता के लिए माला फिराने की बात कही जाती है; परन्तु माला हाथ में फिरती रहती है और मन चारों दिशाओं में दौड़ लगाता रहता है :
माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख माहिं ।
मनुआ तो चहुं दिसि फिरे, यह तो सुमिरन नाहिं । ।
कबीर साहब कहते हैं कि मन को ही फिराने की जरुरत है :
माला फेरत जुग गया, मिटा न मन का फेर ।
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर ।।
इतना ही नहीं, स्वयं माला के ही मुँह से उन्होंने उपदेश दिलाते हुए कहा
'कबिरा ' माला काठ की, कहि समुझावै तोहि ।
मन न फिरावे आपणा, कहा फिरावै मोहिं । ।
मन को संसार से हटाकर परमात्मा के चरणों में लगाना है, प्रेम के अभाव में यह कार्य
For Private And Personal Use Only