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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि से “वर कन्या सावधान” सुना तो सोच में पड़ गये, जहाँ खतरा हो, वहीं सावधान रहने की सलाह दी जाती है, अतः वैवाहिक जीवन में जरूर खतरा होना चाहिये और यदि खतरा है तो मुझे उससे वचने का प्रयास भी करना चाहिये. ऐसा विचार आते ही वे विवाह मंडप से उठकर भाग गये और संन्यासी बन गये. इस प्रकार अपने जीवन से एक आदर्श उपस्थित कर गये, स्वयं तो सावधान हो ही गये, दूसरों को भी मार्ग-दर्शन कर गये. सुप्रसिद्ध साप्ताहिक "धर्मयुग" में एक बार किसी विचारक की एक सूक्ति प्रकाशित हुई थी__ “वैवाहिक जीवन मसाले के समान है, जिसकी प्रशंसा आंखों में आंसू भर-भर कर की जाती शादियों का सीजन चल रहा था, एक गांव में शादी के अवसर पर बड़ी बहिन को रोती हुई देख कर छोटी बहिन ने माँ से पूछा- माँ! दीदी क्यों रो रही है?" माँ ने कहा - "तुम्हारी दीदी आज घर छोड़ कर अपने पति के साथ ससुराल जा रही है, इसे माँ-बाप के, पड़ोसियों के और सहेलियों के वियोग का दुःख है, इसी दुःख से इसे रोना आ रहा है.” बच्ची ने फिर पूछा – “ठीक है, परन्तु दीदी जिसके साथ जा रही है, वह दूल्हा क्यों नहीं रो रहा है?" इस पर माँ ने इतना अच्छा उत्तर दिया कि सभी सुनने वालों की तबीयत प्रसन्न हो जायबोली - “अरे उसे रोने की इतनी जल्दी क्या है? विवाह के बाद जीवन भर उसे रोना ही रोना कितनी अनुभवपूर्ण, कितना यथार्थ उत्तर था यह! रत्नावली की बात सुनकर तत्काल संसार से विरक्त होने वाले सन्त तुलसीदास ने लिखा फूले फूले फिरते हैं, आज हमारो ब्याव । 'तुलसी' गाय बजाय के, देत काठ में पांव ।। विवाह को उन्होंने बन्धन बताया है; किन्तु जैन धर्म की दृष्टि से पूरा संसार ही बन्धन है, जहाँ दुःख ही दुःख है. कहा हैजम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणिय । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ की संति जन्तुणो ।। For Private And Personal Use Only
SR No.008716
Book TitleJivan Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1995
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size7 MB
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