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जीवन दृष्टि
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यह तो हुआ एक भौतिक स्थल प्रयोग, परन्तु आध्यात्मक दृष्टि से इसका प्रयोग सार्वजनिक कल्याण के लिए किया जाता है :
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सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात् । ।
[ सब सुखी हों, स्वस्थ ( निरोगी) हो, सबका कल्याण हो कोई दुःख प्राप्त न करे ]
यह भावना यदि प्रत्येक मनुष्य के अन्तःकरण में मौजूद रहे तो कोई दुःखी न रहे. लोग कहते हैं - 'माला से कोई लाभ नहीं होता"; किन्तु प्रभु का स्मरण मन में न हो और आप काठ की माला के मनके घुमाते रहें तो इसमें माला का क्या अपराध ? कहा है :
माला अच्छी काठ की, बीच पिरोया सूत ।
किन्तु बिचारी क्या करे, फेरनहार कपूत ।।
माला कहती है - "तुम अपने मन का दोष मुझ पर क्यों आरोपित करते हो. तुम्हारा मन चंचल है. उसमें विषय-कषाय की कालिमा है. पूरा संसार बसा हुआ है. पहले उसे बाहर निकालो. मन को निर्मल बनाओ, फिर परमात्मा का स्मरण करो, तब निश्चित ही लाभ होगा. " किसी कवि ने कहा था :
रसरी आवत जात है, सिल पर परत निसान ।
कुएँ की शिला पर औरतें पानी खींचने के लिए जिस रस्सी का उपयोग करती हैं, उससे निशान पड़ जाते हैं. एक-एक इंच तक के गड्ढे उस कठोर पत्थर की शिला के किनारे पड़ जाते हैं. उसी प्रकार प्रभु के नाम का, उनके गुणों का, उनके पवित्र चरित्र का बार-बार स्मरण करने से मन पर भी अच्छे संस्कार पड़ जाते हैं, जो अमिट होते हैं, गहरे होते हैं, स्थायी होते हैं.
नाम स्मरण कभी निष्फल नहीं होता. उससे चित्तवृत्तियों का निरोध होता है. मन में पवित्रता पैदा होती है. आस-पास का वातावरण प्रभावित होता है.
यह उस वातावरण का ही प्रभाव था कि सर्प जैसा क्रूर प्राणी अपने भक्ष्य मेंढक की फन फैला कर स्वयं धूप से रक्षा करने लगा. उसके मस्तिष्क से क्रूरता का भाव ही गायब हो गया. क्रूरता के बदले सहानुभूति, अनुकम्पा और परोपकार परायणता पैदा हो गई.
शंकराचार्य ने निश्चय किया कि मैं अपना पहला मठ यहीं स्थापित करूँगा. ऐसी निर्दोष भूमि भला और कहाँ मिलेगी. जो मेरी साधना के अनुकूल हो !
मैं कह रहा था कि ध्यान की साधना के लिए स्थान निश्चित होना चाहिये.
स्थान के विषय में आपको भी यह अनुभव आया होगा कि जिस रूम में, जिस पलंग पर जिस गादी पर आप प्रति-दिन सोते हैं. उसी रूम में, उसी पलंग पर, उसी गादी पर यदि आप
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