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जीवन दृष्टि शंकरजी के हाथ में डमरू है- सरस्वती के हाथ में वीणा है- नारद के हाथ में तानपूरा हैश्री कृष्ण के हाथ में बाँसुरी है, जो भारतीय संगीत की प्राचीनता का प्रमाण है.
क्लासिकल म्यूजिक से सुनने वालों का मस्तक हिलने लगता है; किन्तु पाश्चात्य संगीत या फिल्म-संगीत को सुनने वालों के बूट हिलने लगते हैं. इससे सिद्ध होता है कि लोग किसका सम्मान करना चाहते हैं. और किसका अपमान!
अस्तु. मैं कहना यही चाहता हूँ कि परमात्मा तक पहुंचने के लिए भारतीय संगीत भी एक साधन है. भावना से भरे संगीत के स्वरों में मस्त होने पर संसार छूट जाता है:“प्रेमगली अति साँकरी । तामें द्वै न समाहिं ।।"
परमात्मा की भक्ति का मार्ग ऐसा है, जिसमें दो नहीं समा सकते. केवल आप जा सकते हैं, आपका संसार नहीं प्रेम जा सकता है. राग-द्वेष नहीं, भक्ति जा सकती है, विषय वासना नहीं. शुद्ध धर्म जा सकता है, अष्टकर्म नहीं,
शब्दों का चमत्कार :
सन्त तुलसीदास में जब तक वासना थी, तब तक वे परमात्मा से दूर रहें, शादी के बाद पहली बार जब पत्नी पीहर गई तो उसका वियोग न सह सकने के कारण वे भी भागते हुए वहीं जा पहुंचे, उनकी पत्नी रत्नावली भी कवियित्री थी, रात को एकान्त में मिलन के समय उसने दो दोहे इस प्रकार सुनायें :
लाज न लागत आपको, दौरे आयहु साथ । धिक धिक ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ ।। अस्थि चर्ममय देह मम, तामें जैसी प्रीति। तैसी जो रघुनाथमहँ, होति न तो भवभीति ।। रत्नावली की भावना को महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला" ने इन शब्दों में व्यक्त किया
धिक् धाये तुम यों अनाहूत । धो दिया श्रेष्ठ कुल धर्म धूत ।। राम के नहीं, काम के सूत कहलाये। हो बिके जहाँ तुम बिना दाम ।। वह नहीं और कुछ हाड़ चाम । कैसी शिक्षा कैसे विराम पर आये ।। तुलसीदास पर रत्नावली के शब्दों का व्यापक प्रभाव पड़ा, वे तत्काल पत्नी का त्याग करके
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