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मितभाषिता : एक मौन साधना
केवल ज्ञान की प्राप्ति के बाद उस साध्वी ने धर्म-देशना दी. फिर रज्जा साध्वी ने उसे प्रणाम करके पूछा कि मुझे कोढ़ रोग क्यों हुआ.
केवल ज्ञान के बल पर उसने बताया :- “आपने रक्त पित्त की परवाह न करके जिस स्निग्ध आहार का सेवन किया था, वह करोलिये की लार से मिश्रित था; इसीलिए आपको कोढ़ रोग हो गया. इसमें प्रासुक जल का कोई दोष नहीं है."
पुनः रज्जा ने प्रश्न किया कि यदि मैं प्रायश्चित कर लूं तो तो क्या मेरा शरीर निरोगी हो जायगा?
केवल ज्ञान वाली साध्वी ने कहा :- “आप शारीरिक रोग शान्त करना चाहती है; परन्तु उससे भाव रोग कैसे मिटेगा? ऐसा कोई प्रायश्चित नहीं है जो आपके भाव रोग को नष्ट कर सके. अपने शारीरिक रोग को प्रासुक जल का फल बताकर आपने अन्य समस्त साध्वियों के मन को आन्दोलित करके पथभ्रष्ट करने का जो महापाप किया है, उसके फलस्वरूप कुष्ठ के अतिरिक्त आपको भगंदर, जलोदर, वायुगुल्म, श्वास, अर्श, गंडमाल आदि अनेक व्याधियों का भोग अगले भवों में करना है और चिरकाल तक निरन्तर दारिद्र्य, दुःख दौर्गत्य, अपयश, अभ्याख्यान, सन्ताप, उद्वेग आदि का भोजन होना है."
यह भविष्य सुनकर समस्त अन्य साध्वियों ने “मिच्छामि दुक्कडं” कहकर रज्जा का साथ छोड़ दिया और केवली-प्ररूपित मार्ग पर चलना प्रारम्भ कर दिया.
केवल एक ही अविचारित वाक्य ने रज्जा के जीव को संसार की अनेक योनियों में भटकने को विवश कर दिया था. इस कथा से हमें सुविचारित वचन बोलने की प्रेरणा मिलती है.
अविचारित वाक्य की तरह कठोर वाक्य भी त्याज्य है. चाणक्य का एक सूत्र है :अग्निदाहादपि विशिष्टं वाक्यारूष्यम् (कठोर वाणी आग से भी अधिक जलाती है!)
आग से शरीर का कोई अंग जल जाय तो बर्नोल आदि लगाकर उसका उपचार किया जा सकता है; परन्तु कठोरवाणी से जो दूसरों का दिल जलाया जाता है, उसका उपचार बहुत मुश्किल से हो पाता है. इसीलिए आचारांगसूत्र में प्रभु महावीर कहते हैं :नो वयणं फरूसं वइज्जा ।। [कठोर वचन नहीं बोलना चाहिये] गुजराती में एक कहावत (संवाद गर्भित) इस प्रकार है :"हे बाई बाड़ी! छास आपजे जाड़ी।"
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