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जीवन दृष्टि
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वर्ष हो गये हैं; किन्तु पहली बार आज मुझे एक सच्चा जिज्ञासु मिला है. ज्ञान के लिए जब ऐसी तीव्र उत्कष्ठा हो - तड़प हो, तभी सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है."
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यह सुनकर शिष्य शान्त हो गये. महर्षि ने बड़े वात्सल्य भाव से युवक के मस्तक पर हाथ फिराते हुए पूछा - " कहो - कहो, क्या प्रश्न है तुम्हारा?"
महर्षि ने मुस्कुराते हुए कहाकर्त्तव्य निर्णय की ?"
युवक - " बहुत शास्त्र पढ़ चुका हूँ; किन्तु समझ में नहीं आया कि कर्त्तव्य की कसौटी क्या है. आप बताइये न !”
"वह ईश्वर क्या करता है? वही सबसे बड़ी कसौटी है- हमारे
बस, इसी उत्तर से युवक का समधान हो गया कि जैसा ईश्वर करता है, वही हमें करना चाहिये. वह झूठ नहीं बोलता-चोरी नहीं करता- निर्दोष प्राणियों को नहीं सताता - अन्याय नहीं करता - कोई पाप नहीं करता तो हमें भी प्राणीमात्र के लिए कल्याण - कामना करनी चाहिये. यह रागद्वेष से दूर रह कर मोक्षमार्ग पर चलता है तो हमें भी चलना चाहिये. जितने भी वह अच्छे कार्य करता है, वे सभी हमारे भी कर्त्तव्य हैं. इस प्रकार सारे धर्मशास्त्रों का रहस्य गागर में सागर की तरह महर्षि के केवल एक वाक्य से समझ में आ गया. इसे कहते हैं - मितभाषिता. यह गुण मौन साधना से प्राप्त होता है.
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