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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२ जीवन दृष्टि पड़ता, क्योंकि तुम्हें एयरकंडीशन्ड रूम में रखा गया है. जहाँ सुरक्षार्थ समस्त सुविधाएं मौजूद है; इस लिए राष्ट्र ध्वज जैसे सन्मान की तुम्हें आशा नहीं करनी चाहिये." यह सुनकर पर्दे को बहुत सन्तोष हुआ, उसके मन में लगी हुई ईर्ष्या की आग बुझ गई, दुःख मिट गया. पर्दे और झंडे के उदाहरण से मैं आपको जो समझाना चाहता हूँ, वह आप कुछ-कुछ समझ ही गये होंगे, फिर भी अपनी ओर से स्पष्टीकरण कर देना चाहता हूँ कि जहाँ पर भौतिक सुख सामग्री प्रचुर मात्र में होगी, वहाँ रह कर सन्मान पाना संभव नहीं है, संसार तो सहनशील का ही सम्मान करता है. साधक जीवन में सहयोग, साधना में तल्लीनता और सहनशीलता ये तीन गुण अपेक्षित हैं. जरा-जरासी बात पर रुष्ट होना और मानसिक सन्तुलन खो देना अच्छा नहीं, लोग कहते हैं – “महाराज! क्रोध आ जाता है. आ ही जाता है, क्या करें?" मैंने कहा – “सब जगह क्रोध नहीं आता. पुलिस स्टेशन पर या इन्कम-टेक्स ऑफिसर के सामने कभी आपने गुस्सा किया है क्या? यदि वहाँ कहा जाय कि आप चोर हैं - वेईमान हैं. नालायक हैं तो भी आप चुप रहते हैं. विरोध भी करना हो - अपने ऊपर लगाये गये आरोपों का खण्डन भी करना हो तो आप क्रोध नहीं करते. जो कुछ कहना हो, कोमल शब्दों में कहते हैं. कैसी नम्रता-कितनी लघुता कैसा अनुशासन अपने आप में उत्पन्न हो जाता है वहाँ! प्रतिकार में संघर्ष बढ़ता है. स्वीकार से ही समर्पण की, त्याग की भावना जन्म लेती है. परमात्मा के दर्शन के लिए मैं एक दिन मन्दिर जा रहा था. ज्यों ही मैंने सीढ़ी के पत्थर पर कदम रक्खा , वह रोने लगा. रुदन का कारण पूछने पर उसने बताया :- “सव लोग मुझ पर पांव रखकर जाते हैं. कुछ लोग मेरी छाती पर जूते खोल कर रख देते हैं. कितने ही वर्षों से यह सिलसिला चल रहा है. पता नहीं, कब तक मुझे यह घोर अपमान सहना पडेगा. आप जैसे साधु - सन्त भी मेरी छाती पर पांव रख कर मुझे अपमानित करने में विल्कुल नहीं सकुचाते. जिस खदान से मेरा जन्म हुआ, उसी से उस पत्थर का भी जन्म हुआ है, जिसके आप दर्शनार्थ पधारे हैं. दुनिया का यह पक्षपात कैसा? यह अन्याय कैसा?" मैंने उसे समझाया :- “भाई पत्थर! जिस खदान से तू पैदा हुआ, उसी से वह पत्थर भी हुआ, जिसके दर्शन करने सब लोग आते है, परन्तु दोनों में अन्तर कितना है? उस पत्थर ने मूर्तिकार की छेनी - हथौड़ी के तीखे प्रहार शान्ति से सहन किये-तपस्या की है. प्रभु महावीर ने बारह वर्ष तक घोर परिषह-उपसर्ग सहन किये थे. उनकी प्रतिमा में भी कुछ सहिष्णुता तो होनी ही चाहिये. उस सहिष्णुता का उस पत्थर ने परिचय दिया है. सारे प्रहार उसने स्वीकार For Private And Personal Use Only
SR No.008716
Book TitleJivan Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1995
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size7 MB
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