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जीवन दृष्टि वाला हो भी सकता है और नहीं भी. जो कुशल वचन बोलने वाला है, वह वाग्गुप्ति वाला भी है और भाषा समिति वाला भी) कुशल वचन वही है, जो पूरी जानकारी के साथ बोला जाय :जमट्टं तु न जाणेज्जा, एवमेयंति नो वए ।। (जिस अर्थ का (वस्तु स्थिति का) ज्ञान न हो, उसके विषय में “यह ऐसा है" ऐसा नहीं कहना चाहिये) यदि किसी विषय में आपकी जानकारी कम है अथवा सन्देह है तो वहाँ मौन रहिये :जत्थ संका भवे तं तु, एवमेयंति तो वए ।। (जहाँ शंका हो वहाँ “यह ऐसा है" ऐसी बात नहीं बोलनी चाहिये) जानकारी होने पर भी यदि किसी बात से पाप होने की संभावना हो तो वहाँ मौन रहना चाहिये :सच्चावि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो ।। (ऐसी सच्ची बात भी नहीं बोलनी चाहिये, जिससे पाप का आगम हो)
जैसे एक मुनि ने जंगल में किसी हरिण को किसी दिशा में जाते हुए देख लिया. पीछे से शिकारी ने आकर पूछा :- “बाबाजी! एक हरिण इधर आया था, वह किधर गया?
इसके उत्तर में अपनी जानकारी के अनुसार सच्ची बात कहने पर हरिण की हत्या होने की सम्भावना स्पष्ट दिखाई देती है; इसलिए ध्यानस्थ मौन रहा जा सकता है.
परन्तु मौन रहने पर शिकारी क्रुद्ध होकर उपसर्ग करने वाला हो तो उसे क्रोध के पाप से बचाने के लिए मौन तोड़ कर ऐसा बोला जा सकता है- "जिन्होंने देखा, वे बोलती नहीं और जो बोलता है, उसने देखा नहीं [अर्थात् आँखों ने देखा, पर वे वोलती नहीं और मुँह बोलता है, पर उसने देखा नहीं]
मुनि की इस यथार्थ किन्तु ऊटपटाँग बात से शिकारी उन्हें पागल समझकर अन्यत्र चला जायगा. मुनि को असत्य का दोष भी नहीं लगेगा और उधर हरिण के प्राण भी बच जायेंगे.
इसी को कहते हैं-कुशल वचन का प्रयोग. जापान एवं अफ्रिका की अनेक जातियों में नियमानुसार वक्ता को एक पाँव पर खड़े होकर भाषण देना पड़ता है. दूसरा पाँव गिरते ही भाषण बन्द करना पड़ता है. इस प्रथा के मूल में मितभाषिता है. कम से कम समय में, कम से कम शब्दों में वक्ता अपनी बात कह दे- यही प्रेरणा इस प्रथा में है.
अमेरिका के राष्ट्रपति विल्सन से किसी ने कहा “आपको अमुक जगह दस मिनिट भाषण देना है".
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