________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२10
मितभाषिता : एक मौन साधना
सूरिजी ने अपने श्लोक इस प्रकार पढ़ कर सुनाये :अपूर्वेयं धनुर्विद्या
भवता शिक्षिता कुतः? मार्गणौध : समायाति
गुणोयाति दिगन्तरम् ।। [हे राजन्! आपने यह अनोखी धनुर्विद्या कहाँ से सीखी कि मार्गणों (वाणों) का समूह तो चला आता है और गुण प्रत्यंचाधनुष की डोर) का दिगन्त में प्रस्थान हो जाता है? (साधारणतः धनुर्विद्या में बाण जाते हैं, प्रत्यंचा धनुष में ही लगी रहती है; परन्तु यहाँ विपरीत हो रहा है; इसलिए इसे अनोखी धनुर्विद्या कहा गया है, यह विरोधाभास नामक अलंकार है. विरोध का परिहार इस प्रकार होगा :- मार्गणों (याचकों) का समूह तो आपके पास याचनार्थ चला आता है, किन्तु (सुयश) दिशाओं के अन्त तक चला जाता है.] सरस्वती स्थिता वक्त्रे
लक्ष्मीः करसरोरुहे। कीर्तिः किं कुपिता राजन् ।
येन देशान्तरं गता ।। [हे राजन्! सरस्वती आपके मुख में है. लक्ष्मी आपके कर कमल पर है, फिर क्या कीर्ति आप से रूठ गई, जो दूसरे देशों में चली गई? (आशय यह कि आप विद्वान् हैं - धनवान् हैं और आपका सुयश दूर-दूर देशों तक फैला हुआ है)] सर्वदा सर्व दोऽसीति
मिथ्या संस्तूयसे बुधैः । नारयो लेभिरे पृष्ठम्
न वक्षः परयोपितः ।। "आप सदा सव कुछ दे दिया करते हैं" ऐसी विद्वानों के द्वारा आपकी जो स्तुति की जाती है, वह मिथ्या है; क्योंकि शत्रुओं ने आपकी पीठ और पराई स्त्रियों ने आप की छाती कभी नहीं पाई! (युद्ध में आप सदा वीरता पूर्वक लड़ते रहे हैं. रणक्षेत्र से डर कर आप कभी भागे नहीं हैं. इस प्रकार शत्रुओं को आपने कभी पीठ नहीं दिखाई, इसी प्रकार आप स्वदारसन्तोषी हैं-शीलधर्म का पालन करने वाले हैं अर्थात् व्यभिचारी नहीं हैं; इसलिए पराई स्त्रियों को आपका वक्षस्थल नहीं मिला. आशय यह है कि पराई स्त्रियों का आपने आलिंगन कभी नहीं किया)] फिर चौथा और अन्तिम श्लोक इस प्रकार सुनाया :
For Private And Personal Use Only