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जीवन में सदाचार
कैसी विचित्र बात है. जाना चाहते हैं पूर्व दिशा में, परन्तु दौड़ रहे हैं पश्चिम दिशा की
ओर !
"चित्तभित्तिं न निज्झाए ।
नारं वा सुअलंकियं । ।”
यदि आप अपनी आत्मा का उत्थान करना चाहते हैं तो उपदेश या आदेश नहीं, एक छोटीसी सलाह आपको मैं देना चाहूँगा. जो लोग पचास वर्ष की अवस्था पार कर चुके हैं, वे पापमन्दिर के अन्दर प्रवेश न करने का सुदृढ़ संकल्प कर लें. प्रभु महावीर फरमाते हैं
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[ अच्छी तरह से अलंकृत नारी का चित्र यदि दीवाल पर भी बना हो तो उसे नहीं देखना चाहिये.]
मन में जब काम विकार जन्म लेता है तब वह विचार को नष्ट कर देता है- धर्म को धूल में मिला देता है- साधना का सत्यानाश कर देता है. यदि किसी तरह ऐसे प्रसंग पर विवेक जागृत हो जाय तो उद्धार भी हो सकता है. साधना की सुरक्षा भी हो सकती है.
एक युवक प्रव्रजित होकर किसी पर्वत की गुफा में ध्यान कर रहा था. उसी समय राजकुमारी जीती भी प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद ध्यान करने के लिए उसी गुफा में आ पहुंची. आकाश में छाये मेघों के कारण अन्धकार सा छाया हुआ था. साध्वी राजीमती ने बरसात से भीगे वस्त्र सुखाने के लिए बाहर चट्टान पर डाल दिये थे, इसलिए निर्वस्त्र देह से ही गुफा में प्रवेश किया. उसे पता नहीं था कि पहले से एक युवक साधु वहाँ उपस्थित है. साधु की नजर साध्वी के शरीर पर पड़ी. मन में विकार जागृत हुआ. उसने भोगयाचना प्रस्तुत की. साध्वी चौंक पड़ी उसने झटपट गीले वस्त्रों से ही अपना तन ढंक लिया और फिर युवक साधु को प्रतिबोध दिया
धिरत्थु तेऽजसोकामी, जो तं जीविय कारणा ।
वं तं इच्छसि आवेउं, सेयं ते मरणं भवे ।।
[तुझ अपयश के इच्छुक को धिक्कार है, जो काम जीवन की प्राप्ति के लिए वमन को चाटने की चाह करता है. इस (वमन को चाटने) की अपेक्षा तो मर जाना तेरे लिए अधिक श्रेयस्कर
है.]
शास्त्रकार कहते हैं कि इस कठोर बात को सुनकर युवक साधु सँभल गया :
तीसे सो वयणं सोच्चा ।
संजयाए सुभासियं । ।
अंकुसे जहा नागो ।
धम् पडिवाइओ ।।
[ उस साध्वी के उस सुभाषित वचन को सुनकर अंकुश से हाथी के समान वह साधु धर्म
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