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जीवन दृष्टि जब मन सन्तुलित होगा, तभी परमात्मा के विचार जीवन में आचार का रूप ग्रहण कर पायेंगे. क्रोध शत्रु है :
आप क्रोध किस पर करते हैं? जो आपका शत्रु है, उसी पर. शत्रु कौन है? जो आपका अहित करता है, वही. आपका अहित करने वाला-आत्मा को कलुषित करने वाला कषाय क्रोध ही तो है. इसलिए वही आपका शत्रु है. क्रोध करना हो तो क्रोध पर ही कीजिये, जिससे वह भाग जाय, कहा भी है“अवकारिषु कोपश्चेत् कोप कोपः कथं न ते?" [यदि अपकारी पर क्रोध आता है तो क्रोध पर ही तुम क्रोध क्यों नहीं करते?] ठीक ही कहा गया है. विष का निवारण विष से किया जाता है, कांटे से कांटा निकाला जाता है. इसी प्रकार क्रोध से क्रोध मिटाया जा सकता है; परन्तु शर्त यह है कि वह अपने ही क्रोध पर किया जाय, दूसरों के क्रोध पर नहीं. दूसरों के क्रोध को अपने क्रोध से मिटाने का प्रयत्न तो ऐसा ही होगा, जैसे खून के दाग को खून से धोने का प्रयत्न.
साधना के लिए समर्पण आवश्यक : साधना की सफलता के लिए पूर्ण समर्पण चाहिये. जव तक मन में क्रोध आदि किसी भी कषाय का अस्तित्व है, तब तक समर्पण का भाव पैदा नहीं हो सकता. धर्म क्रियाओं के प्रति जो रूचि होनी चाहिये, वह नहीं हो सकती. सामायिक में विश्वास नहीं हो सकता. माला फिराने में एकाग्रता नहीं आ सकती. __ मन को सन्तुलित, सन्तुष्ट और शांत करने के लिए उसे मौत का भय दिखाना भी उपयोगी है. सिर्फ एक नोटिस जिस दिन आप मन को दे देंगे, वह सावधान हो जायेगा. नोटिस इसकी कि एक दिन मृत्यु होने वाली है. यह जीवन एक यात्रा है, जो श्मशान पर समाप्त होगी. प्रतिदिन हम एक-एक कदम मृत्यु-रूपी मंजिल की ओर ही तो बढ़ा रहे हैं! यह सुन्दर शरीर मृत्यु के वाद जला दिया जायेगा अथवा गाड़ दिया जायेगा. कोई साथ आने वाला नहीं है. प्रिय से प्रिय वस्तु भी वहीं छूट जाने वाली है :धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे भार्यां गृहद्वारि जनः श्मशाने । देहश्चितायां परलोक मार्गे कर्मानुगो गच्छति जीव एकः ।। [धन जमीन में ही रह जायेगा (पहले धन सुरक्षा के लिए जमीन में गाड़ दिया जाता था), पशु बाड़े में छूट जायेंगे, पत्नी घर के द्वार पर रह जायेगी, कुटुम्वी और मित्र लोग श्मशान तक आयेंगे और यह शरीर भी चिता तक साथ आयेगा (चिता में जला दिया जायेगा; इसलिए
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