________________
[ xii ] धर्म साधना के लिए की जाने वाली क्रियाओं को योग कहा है और योग की स्थान, ऊर्जा, अर्थ, आलम्बन और अनालम्बन ये पाँच भूमिकाएँ बतायी हैं ।
*आचार्य हरिभद्र के पश्चात जैन योग के इतिहास के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैंआचार्य हेमचन्द्र जिन्होंने योगशास्त्र नामक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ का निर्माण किया है। इस ग्रन्थ में पातंजल योग सूत्र के अष्टांग योग की तरह श्रमण तथा श्रावक जीवन की आचार साधना को जैन आगम-साहित्य के प्रकाश में व्यक्त किया है। इसमें आसन, प्राणायाम आदि का भी वर्णन है। पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों का भी वर्णन किया है और मन की विक्षुप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन इन चार दशाओं का भी वर्णन किया है जो आचार्य की अपनी मौलिक देन है।
आचार्य हेमचन्द्र के पश्चात् आचार्य शुभचन्द्र का नाम आता है। ज्ञानार्णव उनकी महत्त्वपूर्ण रचना है। सर्ग 29 से 42 तक में प्राणायाम और ध्यान के स्वरूप और भेदों का वर्णन किया है। प्राणायाम आदि से प्राप्त होने वाली लब्धियों पर परकाय-प्रवेश आदि के फल पर चिन्तन करने के पश्चात् प्राणायाम को मोक्ष रूप साध्यसिद्धि के लिए अनावश्यक और अनर्थकारी बताया है।
उसके पश्चात् उपाध्याय यशोविजय जी का नाम आता है, वे सत्योपासक थे। उन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, योगावतार बत्तीसी, पातंजल योग सूत्र वृत्ति, योगविंशिकाटीका, योग दृष्टिनी सज्झाय आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं । अध्यात्मसार ग्रंथ के योगाधिकार और ध्यानाधिकार प्रकरण में गीता और पातंजल योगसूत्र का उपयोग करके भी जैन परम्परा में विश्रुत ध्यान के अवविध भेदों का समन्वयात्मक वर्णन किया है। अध्यात्मोपनिषद् में शास्त्रयोग, ज्ञानयोग, क्रियायोग और साम्ययोग के संबंध में चिन्तन करते हुए योगवासिष्ठ और तैत्तिरीय उपनिषद् के महत्वपूर्ण उद्धरण देकर जैनदर्शन के साथ तुलना की है। योगावतार बत्तीसी में पातंजल योग सूत्र में जो योग-साधना का वर्णन है, उसका जैन दृष्टि से विवेचन किया है और हरिभद्र के योग विंशिका और षोडशक पर महत्त्वपूर्ण टीकाएँ लिखकर उसके रहस्यों को उद्घाटित किया है, जैनदर्शन की दृष्टि से पातंजल योगसूत्र पर भी एक लघुवृत्ति लिखी है । इस तरह यशोविजयजी के ग्रन्थों में मध्यस्थ भावना, गुण-ग्राहकता व समन्वयक दृष्टि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है।
परम विदुषी साध्वीरत्न महासती श्री मुक्ति प्रभाजी म. का "शोध प्रबन्ध" योगप्रयोग – अयोग मेरे सामने है। प्रस्तुत ग्रंथ रत्न उन्होंने पी एच. डी. उपाधि के लिए तैयार किया है। इस में शोधार्थी महासती जी की प्रबल प्रतिभा के संदर्शन होते हैं। उन्होंने प्रमाणपुरस्सर सभी पहलुओं पर विस्तार से चिन्तन किया है। उनका प्रस्तुत