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[ xi ] प्रभेदों पर प्रकाश डाला है। आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक नियुक्ति में ध्यान पर विशद् विवेचन किया है। आचार्य उमास्वाति ने तत्वार्थसूत्र में ध्यान पर चिन्तन किया है। किन्तु उनका चिन्तन आगम से पृथक नहीं है । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने "ध्यानशतक" की रचना की । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण जैन ध्यान पद्धति के मर्मज्ञ ज्ञाता थे, उन्होंने ध्यान की गहराई में जाकर जो अनुभव का अमृत प्राप्त किया उसे इस ग्रन्थ में उद्धृत किया है। ___ आचार्य हरिभद्र ने जैन-योग पद्धति में नूतन परिवर्तन किया, उन्होंने योग बिन्दु, योगदृष्टि - समुच्चय, योगविंशिका, योगशतक और षोडशक प्रभृति अनेक ग्रंथों का निर्माण किया। इन ग्रन्थों में जैन परम्परा के अनुसार योग साधना का विश्लेषण करके ही संतुष्ट नहीं हुए, अपितु पातंजल योगसूत्र में वर्णित योग साधना और उनकी विशेष परिभाषाओं के साथ जैन योग साधना की तुलना की है और उसमें रहे हुए साम्य को बताने का प्रयास किया है।
आचार्य हरिभद्र के योग ग्रन्थों की निम्न विशेषताएँ हैं : 1. कौन साधक योग का अधिकारी है और कौन योग का अनधिकारी है। 2. योग का अधिकार प्राप्त करने के लिए पहले की जो तैयारी अपेक्षित है, उस
पर चिन्तन किया है ? 3. योग्यता के आधार पर साधकों का विभिन्न दृष्टि से विभाग किया है और
उनके स्वरूप और अनुष्ठान का भी प्रतिपादन किया गया है। 4. योग साधना के भेद प्रभेदों और साधन का वर्णन है।
योगबिन्दु में योग के अधिकारी के अपुनर्बन्धक, सम्यकदृष्टि, देशविरति और सर्वविरति से चार विभाग किए और योग की भूमिका पर विचार करते हए अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृत्तिसंक्षय ये पांच प्रकार बताये । योगदृष्टि समुच्चय में ओधदृष्टि और योगदृष्टि पर चिन्तन किया है। इस ग्रन्थ में योग के अधिकारियों को तीन विभागों में विभक्त किया है। प्रथम भेद में प्रारम्भिक अवस्था से विकास की अन्तिम अवस्था तक की भूमिकाओं के कर्म मल के तारतम्य की दृष्टि से मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा-ये आठ विभाग किए हैं। ये आठ विभाग पातंजल योग सूत्र के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि तथा बौद्ध परम्परा के खेद, उद्वेग आदि अष्ट पृथक जन चित्त दोषपरिहर और अद्वेष, जिज्ञासा आदि अष्ट योग गुणों को प्रकट करने के आधार पर किए गए हैं। योग शतक में योग के निश्चय और व्यवहार-ये दो भेद किए गए हैं। योगविशिका में