Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकचम्पूकान्ये सपिप
धाराशरारभरण मेघः कोदण्डचण्डः सह मन्मथेन
बालाबला सेति च सिन्धुस्वश्चिन्ताकुलस्तिष्थति यत्र पान्धः ॥॥ सत्र बारिवाहवासरेषु तस्मूलनिवासिना निरन्तरयोगोपयोगनिमग्नमनस्कारेण विहितवनदेवतारक्षाधिकारेणेक पीयन्ते निखिलस्य जगतरसमस्काण्डसण्डितनिजशरीरदर्शनवृत्तयोऽभिसारिकाजनमोऽपत्यपोषणगर्वर्यः शर्यः ।
यस्य च भगवतस्तत्मणक्षरक्षीररिपोरपिण्डपाण्डऔरफ्योलम्याप्तिभिर्यशोभिः संभूतमिदमशेषं भुवनमालभमस्मदीयं सितं सर्गदर्शन भविष्यतीवि प्रवाशक इष प्रजापतिः पुरैव प्रदीपकलिकानिकरपेशलानि शेषफणासु प्रभान्ति रत्नानि, निरन्तर
सवालालप्रकाशपिष्टातकनिकीशंकप्सीमन्तिनीसीमन्तपर्यन्सानि झोरोदधिमध्येषु वबगानलमपटलानि, मधुमसविला. सिनीविलोचनाडम्बरसिम्मीनि हम्मगुरुधिरसि बटाबरकलानि, कदिनितम्बिनीस्तनाइम्धस्तिमृगमवपस्वभङ्गसुभगानि गामिनीपतिस्याशवपुरि कुरक्षाकृतिशासनमहांसि, ससससुररमणीकरविकीर्यमाणसिन्दूरपरागपिजराणि पुनासोरकरिकुमुदपुण्डरीकेषु सिरविणकुम्भस्यलानि, प्रकामपीतपीडितमुकमहवरकरपल्लवपच विनिवाप्यमानविद्याधरीबिम्बाधराकृतीनि शिशिर शिवरभूति चातुराङ्गाणि, कुछ विशेषता यह है-जिस वर्षा ऋतु के समय में नर्मदा-श्रादि नदी से रोका हुआ पान्थ इसप्रकार की चिन्ता-( स्मृति ) यश किंकर्तव्य-विमूढ हुआ स्थित है कि यह मेघ, जो कि इन्द्र धनुप से प्रचण्ड व जलधारा रूप वाणों की तीव्र वर्षा की विशेषता से व्याप्त एवं कामदेव के साथ वर्तमान है एवं मेरी नव युवती प्रिया बलहीन है. ॥६॥
जब यह समरत तीन लोक प्रस्तुत भगवान-पूज्य-सुदन्ताचार्य के ऐसे यश-समूह से व्याप्त या, जो कि तत्काल में क्षरणशील-नचे गिरनेयाले-दूध के फेन-समान शुभ्र था और जिसका विस्तार समाप्त नहीं हां था तब मानों-ब्रह्मा ने इसप्रकार की श्राशा की कि 'हमारी शुभ्र मष्टे (हिमालय व क्षीरसागर-श्रादि) का दर्शन लोगों को दुर्लभ होजायगा, इसप्रकार भयभीत हुग ही मानोंससने पहले से ही शेषनाग के हजार फणों के ऊपरी भागों में अपनी सृष्टि के चिह्न बतानेवाले ऐसे कान्तिशाली रस उत्पन्न किये. जो दीपक की शिस्या-समूह के समान मनोहर थे। इसीप्रकार मयभीत हुए ही मानों-उसने शीरसागर के मध्य में ऐसे बड़वानल अग्नि-मण्डलों को उत्पन्न किया जन्होंने दिनरात प्रकाशमान होनेवाले वाला-समूह के प्रकाशरूप सिन्दूर-आदि के चूर्ण से दिशारूप कामिनियों के केशपाशों के पर्यन्त स्थान व्याम किये हैं। एवं मानों-उसने विनायक-पिता (श्रीमहादेष) के मस्तक पर ऐसे अटारूप कल उत्पन्न किये, जो मद्य से विद्वल हुई कमनीय कामिनियों के नेत्रों को तिरस्कृत ( तुलना) करते थे। एवं उसने श्रीनारायण के साले-चन्द्रमा के शरीर में ऐसे मृगाकार चिन्ह के तेज उत्पन्न फिये, जो श्रीमहादेव की भार्या पार्यती-के स्तनों पर विस्तारित कीहुई कस्तूरी की तिलक-रचना सरखे मनोहर थे। इसीप्रकार उसने ऐरावत, कुमुद (नैऋत्य दिग्गज ) और पुण्डरीक (आग्नेय कोण का दिग्गज ) इन शुभ्र दिग्गजों के मस्तक समूहों पर ऐसे कुम्भस्थल उत्पन्न किए, जो देवकन्याओं के करकमलों से निरन्तर फैकी जानेवाली सिन्दूर-धूलि से पिञ्जर (गोरोचन के समान कान्तिशाली) थे। इसीप्रकार अपनी शुभ्र सृष्टियाले हिमालय की पहचान कराने के लिए ही मानों-उसने ( ब्रह्मा ने ) उसके ऊपर ऐसे गैरिक ( गेरू ) धातु के शिखर उत्पन्न किये, जिनकी आकृति विद्यारियों के एकविम्ब फल-से ऐसे
१. सहोसि-अलंकार ।