Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकचम्पृकाव्ये किष्किन्धस्कन्धसंबन्धसिम्पुरोख रकरप्रसारस्खलितरहसि दरदरीसर सरोजमकरन्दमास्वादसम्बसंचारे कावेरीसरित्तरासीकरासारहारिणि केरलाङ्गानालकनृत्तावरणचतुरे परिसरति भागोरश्रीपत्रिक इव वक्षिणात्या दिशः समोरे, किंनरीगणगीतान्मादितकुरङ्गेषु कुलशैलमेखलोस्सषु, रतिरसोत्कण्ठाजरठचाटुकाराम्पासिनीषु चारणावासविलासिनीषु, प्रियतमप्रसादनोपदेशविमोददोहदोस्सुका गन्धर्वनगराभिसारिकासु, सहचरीचरण वर्षोपचारप्रणयिनि विद्याधरपुरलोक, पौलोमीकपोलफलकोचितचिन्नचातुर्येण विनोदयस्यैरावणमई पुरंदरे, लक्ष्मीकुचकुम्भशोभारम्भेण संभावयति बनमालाप्रसूनकिनलक मुकुन्दे, गिरिसुसाधर. दशनदंशनव्यथापायचैदायेन विथुरयति सुधासूतिकलांशंभरे,भुजङ्गीशिखण्डमपनामुम्बरेगक्रीडयति निजफयामणीन् भुजंगनाये, अपि च । सो यत्र मृगाखिनीकिसलयैर्गपतोयगंजः कोकश्चुम्बनचेष्टितैः परिपतन्पारापतः फूजितः ।
___ एणः शृङ्गविधर्षणैर्मगपतिगाद पुनः श्लेषणैः शृङ्गारप्रसरप्रसादिदयः स्त्रां स्वां प्रिया सेवते ॥४४३।। विशाल वृक्षों का श्राश्रय लेनेवाले हाथियों के उन्नत शुण्जादण्डों ( सूंड़ों ) की चेष्टा द्वारा रोका गया है। जिसका संचार ऐसे कमलों का पुष्प-रसरूप मद्य का स्वाद लेने के कारण मन्द होगया है, जो दक्षिण दिशावता मण्डूकपर्यत का गुफाओं में वर्तमान हुए तालाबों में [ प्रफुल्लित ] होरहे थे। जो दक्षिण दिशातिनी कावरा नदी की तरजों के जलकण-समूह हरण करती हुइ केरलंदश (दक्षिणदिशा संबंधी देशविशेष) की कामिनियों के केशों के नर्तन-विधान में प्रवीण है एवं दक्षिणदिशा से आती हुन एसी मालूम पड़ती है-मानों-~-गङ्गातीर्थ की पथिक ( यात्री) है। जब हिमवान-आदि कुलाचलों की कटिंनियां संबंधी उपरितन मध्यभामयाँ किन्नरा-समूहों के मञ्जुल गीतों द्वारा उस्लासित (हर्षित ) किये गए हारणों से शोभायमान होरही थीं। जब स्तुतिपाठकों की गृहनियाँ रतिरस की वाञ्छा के कारण कर्कश मिथ्या स्तुतियों का अभ्यास (वार-वार अनुशीलन) करनेवाला होरही थीं। जब गायक नगरों की अभिसारिकाएँ ( प्रमाजन के पास रतिवलास-निमित्त प्रस्थान करनेवाली कामिनियाँ) प्रियतम को प्रसन्न करने की शिक्षा के क्रीड़ा-मनोरथों में उत्कण्ठित होरहा थी। जब विद्याधर नगरवर्ती मनुष्य अपनी प्रियाओं की चरण-चर्चा (चन्दनादि-लेप) के व्यवहार में प्रणयी होरहा था। जब इन्द्र इन्द्राणी के गाल फलकों पर [ कस्तूरी-आदि सुगन्धि द्रव्यों द्वारा] कीजानेवाला मनोज्ञ चित्ररचना की चतुराई द्वारा अपने ऐरावत हाथी का मद ( दानजल अथवा अहंकार ) उछाल रहा था अथवा अहंकारपक्ष में दूर कर रहा था। जब श्रीकृष्ण अपनी प्रियतमा लक्ष्मी के कुचकलशों की मण्डनविधि-निमित्त देवियों के बगीचा संबंधी पुष्प-केसर की उत्कण्ठा कर रहे थे। जब श्रीशङ्कर पार्वती के ओष्टों की दाँतों द्वारा चर्वण करते से उत्पन्न हुई व्यथा को बिनाश करने की चतुराई के कारण अपने मस्तक पर स्थित हुई चन्द्र-कला का क्षरण कर रहे थे और जब शेपनाग अपनी पद्मावती दया के मस्तक-आभूषण के पाटोप से हा मानों-अपनी सहस्र-फणाओं में स्थित हुए मणियों के साथ काड़ा कर रहे थे।
__ अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज! मैंने स्तुतिपाठकों के निम्नप्रकार सुभापित वचनामृतों का पान करते हुए वसन्त ऋतु में कामदेव की आराधना को
हे राजन् ! जिस वसन्त ऋतु में हंस कमलिनी-पल्लयों द्वारा अपनी हँसी प्रिया का सेवन करता है। जिस वसन्त ऋतु में हाथा कुरले के जला द्वारा अपनो हथिनी प्रिया के साथ क्रीड़ा कर रहा है। जिसमें चकवा चुम्बन-चेशों द्वारा अपनी च कयी प्रिया की सेवा कर रहा है तथा कबूतर सामने आता हुआ मधुर शब्दों द्वारा अपना कबूतरां प्रिया का सेवन करता हुआ सुशोभित
१. उत्प्रेक्षालवार ।