Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 416
________________ RE यशस्ति कचम्पूकाव्ये स्नेकावर सूक्तविशारदान्मनमकरन्दानन्दित निखिल्जनात्मनो धन्विनः कृतश्रवणामृत निषक्तः सूकी निशामयमधौ मकरध्वजमाराधयामास । कदाचित —ख खतनुस्थितिर्धनुषि च प्राप्ता धनुः संहति बाणे बाणवपुर्भुजे भुजमयी गात्रे तनुश्राकृतिः । प्रतिविधौ चिन्तामणिर्भूभुजां या सा स्यादपराजिता सब मुहुजैत्राय घाश्रीपते ॥ ४६० ॥ ताराः कुन्तलमौक्तिकानि परूपप्रायरश्मी दृशौ वासः स्वर्गसरिद्दिशो भुजलताः काशी पयोराशयः । tet देवगिरिः witraमणयो जाताः पदासंकृतिर्यस्याः सातशतिरस्तु भवतो भृत्यै चिरायायिका ॥ ४६१ ॥ स्वर्गे भमेण्ट शितिकण्ठपयोजपीठ वैकुण्ठपाठनडर स्ववनोचिताङ्घ्रिः । या चावनी चरमराचरखे चरराचसा वः श्रियं प्रतादपराजितेयम् ॥४६२ ॥ स्थापित किया गया है। अर्थात् कामिनियों के साथ झूलने से जिसमें उनके द्वारा निम्नप्रकार आनन्दो - रपत्ति संबंधी विशेषता लाई गई है। जिसमें मुख का मुख के साथ मिलन होता है। जिसमें नेत्र एक दूसरे के नेत्रों को देखनेवाले होते हैं। जिसमें वक्षःस्थल उन्नत स्तनों के अमभागों के साथ संघट्टन करने से आनन्द अवस्था युक्त मध्यदेशवाला होजाता है एवं जिसमें दोनों हस्त समीपवर्ती दोनों हस्त्रों के सद्भाव से उन्हें महण करनेवाले होते हैं और जिसमें जगाएँ जँधाओं से मिली हुई होती है ||४५९ ॥ वाद--हे मारिदत्त महाराज ! किसी अवसर पर मैंने निम्नप्रकार 'विजयजैत्रायुष' नामके स्तुतिपाठक द्वारा ज्ञापित की हुई शोभावाली 'महानवमी' पूर्ण करके उसीप्रकार दीपोत्सव ( दीपमालिका-उत्सव ) पर्व लक्ष्मी ( शोभा ) का, जिसका अवसर (प्रस्ताव - प्रसङ्गः ) 'सूतसूक्त' नामके स्तुतिपाठक विशेष द्वारा किया गया था. अनुभव ( उपभोग ) किया। अब 'विजय जैत्रायुध' नामका स्तुतिपाठक 'महानवमी' उत्सव मनाने के निमित्त प्रस्तुत यशोधर महाराज के समक्ष अपराजिता व अम्बिकादेवी (पार्वती) की निम्नप्रकार स्तुति करता है हे प्रथिवी नाथ ! ऐसी वह 'अपराजिता' नामकी देवी आपको यारम्बार विजयश्री की प्राप्ति निमित्त होवे, जो राजाओं के खन में स्वरूप से निवास करती है। जो उनके धनुष में धनुष- श्राकार को प्राप्त हुई है और बाए में बाणशरीर-शालिनी है । इसीप्रकार जो राजाओं की बाहु में बहुरूप से स्थित होती हुई उनके शरीर पर कवच के आकार होकर निवास करती है एवं जो युद्ध में उत्तम विजयश्री की प्राप्तिनिमित्त है तथा वाञ्छित वस्तु देने में चिन्तामणि है ||४६ || हे राजन! आश्चर्यजनक शक्तिवाली वह ऐसी अम्बिका ( श्रीपार्वती ) देवी चिरकालतक आपके ऐश्वर्य निमित्त हो, द्वारे ही जिसके केशपाश के मुक्ताभरण ( मोतियों के आभूषण ) हैं । सूर्य व चन्द्रमा जिसके दोनों नेत्र हैं । स्वर्गगा जिसका निवास स्थान है। दश दिशाएँ जिसकी भुजलताएँ (बाहुरूप बेलें ) हैं समुद्र ही जिसकी करवोनी है। सुमेरु पर्वत ही जिसका शरीर है एवं शेषनाग की गाओं में स्थित हुए मरिए ही जिसके चरणों के आभूषण हुए हैं ||४६१।। हे राजम् ! वह जगत्प्रसिद्ध ऐसी यह 'अपराजिता ' देवी आपकी लक्ष्मी विस्तृत करे, जिसके चरण देवेन्द्र, श्रीमहादेव, ब्रह्मा व श्रीनारायण के पाठ के मध्य में किये हुए स्तवन में योग्य हैं एवं जो देवी, भूमिंगोचरी राजा, देवता व विद्याधरों द्वारा पूजनीय है ४ || ५६२|| १. समुच्चयालङ्कार । २. दीपक व रामुच्चयालंकार । ३. रूपक, आदेश समुचयालंकार | ४ अतिशय व समुच्चयालंकार |

Loading...

Page Navigation
1 ... 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430