Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 430
________________ 406 यशस्तिवकपम्पूकाव्ये इति विप्रलसंधीदसावेदमविधायदैरबसरसुभाषितभाषाकोपिदैः संभालितभापराविधिरव्येय केनविवारजनलवविदितप्रतीकारशर्मगा कर्मगा मुहुरहानांपचारमानौषधोपयोगोदाहारमतीच रमणीमानामेमानो स्मरस्वरमचिकित्सम् // उम्मीलनुकोन्द्रसभानुभगाम्याविभूपतिश्रीचिकानि जिनेक्षणागतसममेणीविमानानि / पूजार्जनसबदुन्दुभिस्वोधावप्रमोदोश्यादित्य त्रीण्यपि यस्य जग्मनि बगस्यासम्स बोयाबिगः // 21 // लोकविर कवित्वे वा यदि चातुर्यशत्रवः / सोमदेवकोः सूतीः समस्पस्थान साधयः // 114 // इति सम्माकिलोकशामणः श्रीमन्नेमिदेवभगवतः शिध्येण सोमयागमपचविषापरणामतिविमण्डमम्मीभववरणकमलेन भीसोम देवसूरिणा विरविते यशोधरमहाराजारित यशस्सिलकापरनाम्नि महाकाव्ये रामलक्ष्मीनिमोक्नो नाम तृतीय आवासः समासः। अन्त्यमङ्गल--यह जगत्मसिद्ध ऐसा जिनेन्द्र (सर्पज्ञ वीतराग ऋषभावि-ती ) आपकी रक्षा करे, जिसके जन्मकल्याणक के अवसर पर तीनों लोक ( अधोलोक, मध्यलोक और अयलोफ) पूजा-निमित्त सुसजित हुए दुन्दुभिवाजों के शब्दसंबंधी उत्सव की हर्षोत्पत्ति होने से क्रमशः इसप्रकार हुए। अर्थान-अधोलोक पाताल से प्रकट होते हुए नागकुमार-भवनों से पुण्यशाली हुए। इसीप्रकार मध्यलोक चक्रवती-आदि राजाओं की जिनगों के सार होनेत ते निहो / वजा, छत्र व चामर आदि) से सशोभित हुए एवं ऊर्चलोक पभावि तीथेवरों के दर्शन-हेतु आए हुए देव-समूहों के विमानों से अधिष्टित हुए // 513 // यदि विद्वान् लोग लोकव्यवहार परिवान अथवा काव्यकला-चातुर्य ( विद्वत्ता) में निपुण होना चाहते हैं तो सोमदेवाचार्य की सूक्तियों ( सुभाषितों) फा अनुशीलन (भभ्यास) करें // 514 / / इति भद्रं भूयात् / / ___ इसप्रकार समस्त तार्किक-( षड्दर्शनवेसा) चक्रवर्तियों के चूडामणि ( शिरोरत्न या सर्वश्रेष्ठ) श्रीमवाचार्य 'नेमिदेव के शिष्य 'श्रीमत्सोमदेवसरि थाप, जिसके चरणकमल तरकाल निर्दोष गप-पद्य विद्याधरों के चक्रवतियों के मस्तकों के आभूषण हुए है, रखे हुए यशोधरमहाराजपरित' में, जिसका इसन नाम 'पशस्तिलकचम्पू महाकाव्या है, 'राजलक्ष्मीविनोदन' नाम का तृतीय भाषास पूर्ण हुआ। ___ इसप्रकार दार्शनिकचूडामणि श्रीमदम्बादास जी शास्त्री व श्रीमत्पूज्यपाद आध्यात्मिक सन्त श्री 105 क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य के प्रधान शिष्य, नीतिवाक्यामृत' के भापाठीफाकार सम्पावर प्रकाशक, अनम्यायतीर्थ, प्राचीनम्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ व आयुर्वेदविशारद पर्ष महोपदेशक-मादि अनेक उपाधि-विभूषित, सागरनिवासी परवारजनजातीय श्रीमत्सुन्दरलाल शास्त्री द्वारा रची हुई श्रीमत्सोमदेवसुरि-विरचित 'यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य' को 'यशस्तिलकदीपिका' नाम की भाषाटीका में यशोधरमहाराज का 'राजलक्ष्मीविनोद वर्णन' नाम का सृतीय भावास ( सर्ग) पूर्ण हुआ। इघि भद्रं भूयात् *"विधिभिरन्यनय क धिनीषधोपयोगोदाहरणमतीय रगारीमानामा क.। 1. अतिशय समुच्ययालार। 2. समुस्थालवार /

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