Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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द्वितीय भाषासः
१९१ इचानः मताः किमिवमिवि मनोज्याकुज विक्करीमी प्रत्याक्षिसावंगर्वस्खलितकरयुग साविना भास्करण। समः संत्रस्तहातापरिवपयनुलैः श्रुता सिरसा स स्वादिकपाकवावसरविधिकरस्थरपोपस्तदायम् ॥१३॥
पुलोमात्मवानुगतः मुरपतिस्वैिरावणं तपासतमतिमहादेव्या महासस तं कारेवरम्मरतप्रसनमलसमिरिपोमयः शामिनोकरवयमणिमरीचिमेसकरुविमिवामरपरम्पामिरुपसेव्यमाना फौमुदीबन्दमालविकासिनावपEntभोगेनाम्बरसरसि परिकल्पितापशपरप्रदेशोपण्डपुण्डरीकानीका सेवागवानेकमहासामन्तमुकुटमाणिस्योन्मुखमपूलशेकरिताकशीघ्र ही ऐसा रथ प्रेषित करो, जिसमें दिव्य ( वेवताधिष्ठित ) आयुधों का * तन्त्र ( साधन ) वर्तमान है। हे प्रत्यक्षीभूत विक्पालो! तुम सब श्रीयशोधरमहाराज की सेवा विधि के हेतु पारम्बार शीघ्र आओ' ।। २३४ ॥
हे राजन् ! वह जगत्प्रसिद्ध व प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाली आपकी ऐसी बाध-( पाजों) ध्वनि राजाओं की सेवा का अबसर-विधान सूचित करनेवाली होवे, जो दिमाजेन्द्रों द्वाय उत्कण्ठित हुए कर्णरूप तालपत्रों से 'यह क्या गरज रहा है? इसप्रकार व्याकुल (विल) मनपूर्धक श्रवण की गई है। इसीप्रकार जो सूर्य-सारथि द्वारा पूर्व में ) विध्वंस किये हुये सतायों सूर्य धोवों) के गर्व से स्खलित (लगाम न खीचनेवाले ) हस्तयुगल पूर्वक श्रवण की गई थी। भावार्थ-पूर्ष में सूर्य-भारथि ने सूर्य के घोड़ों की लगाम दोनों हाथों द्वारा खीची थी और बार-बार ऐसा करने से उसने उनका तेजी से.मागने का मद चूर-चूर कर दिया था, अतः उक्त बात (अब ये तेजी से नहीं भागेंगे) आनकर उसने प्रस्तुत यशोधर महाराज की वादित्र-ध्वनि के श्रवण के अवसर पर सूर्य के घोड़ों की लगाम दोनों हाथों द्वारा नहीं खींची, क्योंकि उसका मन प्रस्तुत बाथ-ध्वनि के अषण में आसक्त हो रहा था। निष्कर्ष-उक्त बाध-अनि के श्रवण के अवसर पर सूर्य-सारथि भागनेवाले सूर्य के घोड़ों को अपने दोनों हाथों से रोकने में समर्थ न होकर उस वाद्य-ध्वनि को निश्चल मनपूर्वक श्रवण कर रहा था। इसीप्रकार जो ( बाध-ध्वनि ) ऐसे विद्याधर-समूहों द्वारा श्रयण की गई थी, जो कि तत्काल भयभीत हुई देवियों का संगम हो जाने के कारण भागने के लिये चालता कर रहे थे ।। २३५ ॥
अथानन्तर उक्त अभिषेक मण्डप से राजधानी की ओर वापिस लौटते समय में इस असूपमति महादेवी के साथ, जो कि 'श्रीमती' नाम की रानी के पति 'श्री वर्मा' राजा की सुपुत्री थी, उस 'उदयगिरि नाम के श्रेष्ठ हाथी पर उसप्रकार आरूढ़ था जिसप्रकार इन्द्र इन्द्राणी सहित ऐरावत हाथी पर मारूब होता है। उस समय मैं इस्वी पर आरूढ़ हुई कमनीय कामिनियों द्वारा दोनों पाव-भागों (पाईप बाई भोर ) से ऐसे चैमर-समूहों से ढोरा जारहा था। अर्थात्-कमनीय कामिनियों मेरे शिर पर ऐसी चमर-श्रेणियों ढोर रही थीं, जो कि कल्पवृक्ष की पुष्प-मारियों सरीखी शुभ्र व मनोज थी एवं जिनकी अन्ति कमनीय कामिनियों के इस्त-करणों की रत्न-किरणों से मेचक ( श्याम ) होरही थी। इसीप्रकार इस अवसर पर मेरे शिर पर शोभायमान होनेवाखे छत्र-विस्तार से ऐसा मालूम पड़वा था-मानों-मेने
आकाशरूपी तालाब में सर्वत्र उन्नत घेत कमल-समूह की रचना की है और जो (विस्तृत छत्र) उसप्रकार शोभायमान हो रहा था जिसप्रकार चाँदनी सहित चन्द्रमण्डल शोभायमान होता है। * उकं च–'तन्त्रं शास्त्र कुर्म सन्त्रं तन्त्रं सिद्धौषधिकिया । सन्नं सुझ पलं - तन्वं तन्वं पानसागम् ॥' १. उप्रेक्षालहार । म सं. टी० पू० ३३४ से सङ्कलित-सम्पादक
२. हेतु-अलंकार । ३. उक्तं च-'कृष्णेऽधकारे मायूरचन्द्रके श्यामलेऽपि च । भैसकः कय्यते विदिश्चतुर्धर्षेषु गोजितः ॥१॥ सं० टी० पृ. ३१५ से संकलित-सम्पादक