Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकचम्पूकाव्यै
महोत्सवक्ताशुकादैः प्रत्यावर्तमानमार्तण्डकरणसरम् गगनखक्ष्मीवशोजमण्डलेरिव स्वकीयकान्तिपिश रिसनभोभोगभिचिभिः कामानसैः परिकल्पिताभ्रंलिदशित रिशिखर परम्पराशोमम, त्रिदिवदीर्घिकालर औरिवेशस्ततः प्रधावद्भिः सुधाि प्रशासनम् मद्दीश्वरवेश्म देसा विकासाभिरिव रत्नम स्तम्भवम्बित मुक्ताप्रलयमलप्रवाखानेकदिदा भिस्ति देशांतम्भितः जमान्य प्रोत भर कसरि णिरिताङ्ग र चोभमन्तकुमणिरथतुरगवेमामिरुनेचरको किमिः प्रति कुबेरपुरीरामणीयकावतारम् महामण्ढलेश्वर रनवर समुपापकृत करीन्द्रलक्ष्मीजनित( माङ्गलिक अक्षतों) की वृष्टि द्वारा फलों (आम्र आदि ) के इच्छुक लोक ( जनता ) के लिए अपने को पुष्पशाली करता हुआ ऐसे 'त्रिभुवन तिलक' नाम के राजमहल में प्राप्त हुआ, जिसमें ( राजमहल में ) महोत्सव संबंधी ऐसे ध्वजा वस्त्रों के प्रान्तभागरूपी पड़वों द्वारा सूर्य की किरण प्रवृत्ति पराङ्मुख (दूर) की जा रही है। जो ( ध्वजा वस्त्र- प्रान्तपल्लव ) ऐसे मालूम पड़ते थे- मानों- आकाशलक्ष्मी के नृत्य करते हुए इस्त ही है। जिनकी प्रवृत्ति वायु के चंचल संचारवाले अङ्गों से विशेष मनोहर है और जिनका बिस्तार पंच वर्षों ( हरित व पीत आदि ) की रचना के कारण रमणीक है एवं जिनके मध्य मध्य में मधुर शब्द करती हुई रत्नजड़ित सुवर्णमयी क्षुद्र (छोटी) घण्टियों की श्रेणी बँधी हुई थी ।
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फिर कैसा है वह 'त्रिभुवनतिक' नाव राजन्न ? जिसकी उच्च शिखरों पर ऐसे सुवर्ण कलश, जिन्होंने अपनी कान्तियों द्वारा आकाश प्रदेश- भित्तियाँ पिञ्जरित ( पीत- रक्तवर्णवाली ) की हैं. इससे जो ऐसे पतीत होते थे मानों - आकाशलक्ष्मों के कुच - ( स्तन ) मण्डल ही है, स्थापित किये हुए थे, जिनसे वह ऐसा प्रतीत होता था मानों जहाँपर आकाश को स्पर्श करनेवाले ( अत्यन्त ऊँचे ) पर्वतों की शिखर श्रेणियों की शोभा उत्पन्न की गई है। गङ्गानदी की तरहों के सदृश शुभ्र और यहाँ वहाँ फैलनेवाले चूना आदि श्वेत पदार्थों की किरणों के विस्तार-समूहों से जिसने समस्त दिशाओं के मण्डल उज्वल किये थे। जिसने ऐसी ऊँची व उत्तरङ्ग दोरण-श्रेणियों द्वारा कुवेर-संबंधी अलका नगरी की अत्यन्त मनोहर विशेष रचना प्रकट की थी। जो ( तोरण-श्रेणियाँ ) ऐसी प्रतीत होती थींमानों – शेषनाग की गृहदेवता के कोड़ा करने के झूले ही है। जिनमें रल-घटित स्तम्भों पर लटकी हुई मोतियों की विस्तृत मालाएँ तथा स्थूल प्रवाल ( मूँगे) एवं अनेक दिव्य ( अनोखे व स्वर्गीय ) वस्त्रसमूह वर्तमान थे एवं जिनके प्रान्तमार्गो पर ध्वजाएँ बँधी हुई थी और उनके प्रान्तभागों पर स्थित हुए मरकत मणियों (इरित मणियों ) रूपी दर्पणों की किरणरूप हरितांकुरों ( दूब ) के लोभ से आये हुए सूर्य-रथ के घोड़ों का वेग जिन्होंने काल्प कर दिया था ।
भावार्थ - क्योंकि सूर्य रथ के घोड़ों को ध्वजाओं के प्रान्तभागों पर स्थित हुए हरित मणिमयी दर्पणों की फैलनेवाली किरणों में इरिवारों ( दूब - हरीघास ) की भ्रान्ति होजाती थी, अतः व रुक जाते थे ।
फिर कैसा है वह 'त्रिभुवनतिलक' नाम का राजमहल ? महामण्डलेश्वर राजाओं द्वारा निरन्तर भेंट-हेतु लाये हुए श्रेष्ठ हाथियों के गण्डस्थल आदि स्थानों से प्रवाहित होनेवाली मदजल की लक्ष्मीरूप संपत्ति द्वारा अद्दाँपर छिटकाव उत्पन्न किया गया है। इसीप्रकार जहाँपर भेंट-हेतु आये हुए कुलीन घोड़ों के मुखों से उगली हुईं फेनराशिरूपी श्वेतकमलों से पूजा की गई है और दूसरे राजाओं द्वारा भेजे हुए अनेक दूतों के इस्तों पर स्थापित की हुई प्रचुर बस्तुएँ ( रल, सुवर्ण ष रेशमी वस्त्र आदि) द्वाय
*. 'बभोभागमित्तिभिः ६० । १. 'मुक्ताप्रालम्बप्रवलधुभगिरथ देगलुरगवेगाभिः ॐ ।