Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिस्लफचम्पकाम्ये मतिम मिचेवास्तसत बहिसाइ सम्मधिकलवणान प्राशनाड टिमान्यम् । अस्पति बपुरेगापासतीक्ष्णोपवुक्तिसविल्यमसात्म्यं भुक्तमान करोति ॥ ३६५ ॥ वपणो देहदाहाय पायोनिलकोपनः । निषेश्यमागः सातत्यापतिमात्रसया रसः ॥ ३६६ ॥ (युग्मम् ) पसमिमविदाहिया शीतं निषेत्र्यं क्वचितमिदमुपास्य दुर्जरेने व पिथे। मपति विदलकाटजन्तिसोमस्य पानं घृतविकृतिषु पर्य कालशेयं सदैव ॥ ३ ॥ मादौ वर्ष पहिरिनाशकायें कुत्तदन्ते कफवर्ण छ । मध्ये तु पीस समता सर्वच माल्यातियोगोऽभिमतः सहय ॥ ३६८ ॥ अमृत विमिति चैतत्सलिले निगम्ति विशिमार्या: ।::तिमा भिमलित करना३६९॥ कोई प्रास्त्रवणं वसन्तसमवे प्रीष्मे सदेवोचित काले बालभिवृष्टिदेशमथवा चौपाय धनानां पुनः ।
नीहारे सीतजामविक्यं स रस्संगमे से सूर्यसितापुरश्मिपवनव्याधूतदोष पयः ॥ ३० ॥ अपने लिए हितकारक हो । अर्थात् -बहुत अधिक दूध नहीं पीना चाहिए ॥३६४॥ विशेषमात्रा में मोठा (गुरव शकर-आदि) खाने से जठराग्नि ( भूख ) नष्ट होजाती है। अधिक नमकवाला अन्न खाने से आँखों की नजर मही पड़ जाती है। अत्यन्त खटाई व लालमिर्च-श्रादि घरपरे रस का सेवन शरीर को वीर्ण कर देता है एवं अपथ्य ( प्रकृति व ऋतु के विरुद्ध किया गया ) भोजन शारीरिक शक्ति नष्ट कर देता है। इसीप्रकार निरन्तर अधिक मात्रा में सेवन किया गया सोंठ, मिर्च, व पीपल-आदि गरम रस शरीर को सन्तापित करता है और हरड़ व आँवला-श्रादि कषायला रस वात कुपित करता है ॥३५-३६६॥ (युग्मम् ) जौ का आटा खाने से उत्पन्न हुए अजीर्ण रोगों के विनाश-हेतु शीतल जल पीना चाहिए। गेहूँ का आटा खाने से उत्पन्न हुए अजीर्ण को दूर करने के लिए उवाला हुआ पानी पीना चाहिए। दाल खाने से पैदा हुए अजीर्ण को नष्ट करने के लिए काफी पीना चाहिए और घृत-पान से उत्पन्न हुए अजीर्ण को नष्ट करने के लिए सदा मट्ठा पीना चाहिए ॥३६७॥
अब उक्त वैद्य यशोधर महाराज के लिए जल पीने की विधि निरूपण करता है
राजन् ! भोजन के पहले पिया हुश्रा पानी जठराग्नि नष्ट करता हुआ शरीर को दुर्बल बनाता है और भोजन के अन्त में पिया हुआ पानी कफ-वृद्धि करता है एवं भोजन के मध्य में पिया हुआ पानी वात, पित्त कफ को समान करता दुश्रा सुखदायक है। इसलिए एक बार में ही पानी को अधिक मात्रा में पीना अभीष्ट नहीं है। क्योंकि आयुर्वेद के वेत्ताओं ने कहा है कि पानी को बार-बार थोड़ा थोड़ा सना पाहिए ॥३६८॥ क्योंकि आयुर्वेदवेनाओं ने पानी के 'अमृत' और 'विष' ये दो नाम कहे हैं। अवान्-इलायुध कोषकार ने 'अमृत', 'जीवनीय' और 'विष' इन तीन नामों का उल्लेख किया है, उसका कही अभिप्राय है कि युक्तिपूर्वक ( पूर्वोक्त विधि से ) पिया हुआ पानी 'अमृत' व 'जीयनीय' नामवाला कहा गया है और जब वह बिना विधि से पिया जाना है तब 'विष' नाम से कहा जाता है" ॥३६॥
[राजम् ! ] पसम्तभूतु और प्रीष्मऋतु में कुए और भरने का पानी एवं वर्षाऋतु में पर्ण-हीन देश (मारवाइ) के कुए का तथा छोटे कुए का पानी पीना चाहिए। शीतऋतु में बड़े व छोटे तालाबों का पानी एवं शरतऋतु में सभी प्रकार का पानी (कुएँ व मरनों आदि का ), जिसका दोष सूर्य, चन्द्र
१. स्पा समुचयालंकार । ।, आति-भालंकार । ३. समुच्चयालंकार । ४. स्था चोसम्-'मूहद्दवारि विवंदभरि' भावप्रकाश में संकलित-सम्पादक ५. समुच्चयालंकार । ६. रूपकालकार ।