Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 408
________________ ३८४ यशस्तिलकचम्पूकान्ये तारतरं स्वनत्सु मुखरितनिखिलाशामुखेषु पाईधु, मायमानायु प्रतिपादनावितदिगम्वरगिरिगृहामण्डलानु साहला, पनाम क्षोभिसाम्भोमिधिनाभिषु दुन्दुभिषु शम्दायमानेषु सरसन्नीश्रवणाहकोषु पुष्करेषु, प्रहता विनासितसैन्यसामनविकास रकासु, दायमानेषु सिद्धयोधप्रघर्षकेषु महानकेषु, समितासु बिम्भितभुजगभामिनीसंरम्भान भम्भासु, प्रगुणितेषु भयोत्तम्भितामस्करिकर्शतालेषु वालेषु, प्रोत्सालितास रणरसोत्साहिरासुमघटाप करटासु, विकासन्तीषु +विलम्बलभप्रमोदिसकदनदेयतावशास्थलाg त्रिविलार, प्रवर्तितेषु निरन्तरवामप्रवर्तिताहमचरराक्षसीकेषु इमल्केषु, स्फारितासु प्रदीर्घकृजितरितवीरलक्ष्मीनिकेसनिकुआ थासु, जयन्तीषु विशिष्टकटकवेष्टितलुण्टासु भयषण्टासु, गायस्थ पेणुवीणामलरीध्वनिसमानतानेषु गायनेधु, उदाहरल्स मन्त्राशीविनिपुणोधारणेषु धामणेषु, पठत्म समरोस्सुकवीरपुरुषहत्यामन्दिषु बन्दिषु, त्करमाणेषु संपादिताधिपूर्वाचन्दनेषु नृपतिनन्दनेषु, पुनः क्या क्या होने पर मयानक युद्ध हुआ? जब शङ्ग, जिन्होंने समस्त पूर्व व पश्चिम-आदि दश दिशा-समूह शब्दायमान किया है, अत्यन्त उच्चस्वर-पूर्वक शब्द कर रहे थे। जब ऐसी काइलाएँ (विशेष भेरियाँ ) बजाई जारही थीं, जिन्होंने प्रतिध्वनि द्वारा समस्त विशा-मभ्यभाग, पर्वत और गुफाश्रेणी शब्दायमान की है। जब भेरियाँ शब्द कर रही थी, जिसके फलस्वरूप जिन्होंने समुद्र-मध्यभाग संचालित किये थे। जब पुष्कर (मर्दल वायविशेष) देव-सुन्दरियों के कानों में व्याधिजनक अथवा कर शव्य कर रहे थे। जब ४ ( ढोल या नगाड़े) कोणों के आधातों द्वारा वाडित किये गए थे, जिसके फलस्वरूप जिनके द्वारा सेना के हस्ति-कलम ( बचे) भयभीत किये गए थे। जब सिद्धपधुनों ( वेवियों) की चेतना नष्ट करनेवाले महान् आनक ( भेरी तथा नगाड़ा) बजाये जारहे थे। जब भम्भाएँ ( वराङ्गा-छिद्र-युक्त बाजाविशेष ), जो कि पाताल-कन्याओं का क्रोध विस्तारित करती थी, घृद्धिंगत कीगई थीं। जब ताल (बाँसुरियाँ ), जिन्होंने देव-हाथियों द्वारा संचालित कानरूप तालपत्र भय से निश्चल किये हैं, वृद्धिंगत होरहे थेद्रतगति से बज रहे थे। जब करटाएँ ( वादिनविशेष ), जिन्होंने सुभट-रचना को युद्धरस ( वीररस ) की अभिव्यक्ति द्वारा युद्ध संबंधी उद्यम करने में प्राप्त कराई है, प्रचुर शब्द करनेवाली होरही थीं। जब त्रिविलावादित्र (चारों ओर चर्म से बँधे हुए मृदङ्ग-आदि षाजे), जिनके द्वारा विलम्ब । दूत व मध्य से भिन्न-धीरे धीरे बजना) के साम्य के फलस्वरूप संग्राम-देवताओं के पक्ष स्थल हर्षित किये गए हैं, शोभायमान होरहे थे। अर्थात्-कानों को सुख देते हुए बज रहे थे। अब डमरूबाजे, जिन्होंने निरन्तर शब्दों द्वारा संप्रामवतिनी राक्षसियाँ अवतारित (प्रेरित ) की है, प्रवर्तित ( विस्तृत ) होरहे थे-श्रुतगति से बज रहे थे। जब रुआ नाम के वादिनविशेष, जिन्होंने विस्तृत शब्दों द्वारा वीरलक्ष्मियों के गृहवर्ती मध्यप्रदेश जर्जरित ( अधरीकृत-शब्द-श्नवण के अयोग्य ) किये है, प्रचुर शब्दशाली किये गए थे-द्रुतगति से बजाए गए थे। जब जयघण्टाएँ ( कांसे की कटोरियों ), जो कि शत्र (प्रकरण में शत्रभूत अचल नरेश) की सैन्य-प्रवृत्ति को लप्त करनेवाली होती हई जयजयकार कर रही थीं। अर्थात्-प्रकरण में प्रस्तुत यशोधर महाराज को विजयश्री प्रकट कर रही थीं। अब गन्धर्व, जो कि वेणु (वायु प्रविष्ट होने से शब्द करनेवाले सच्छिद्राँस ), वीणा व मल्लरी (वादित्र-विशेष ) की ध्वनियों सरीखा गान करते थे, गान कर रहे थे। जब भाक्षरण लोग मन्त्र ( वेद ) के आशीर्वादों का निपुण उच्चारण' उदास, अनुदात्त व स्वरित स्वरपूर्वक शुद्ध पठन ) करते हुए पढ़ रहे थे। जब स्तुतिपाठक संग्राम में उत्कण्ठित वीर पुरुषों के चित्त प्रमुदित करते हुए षट्पदादि पाठों का उच्चारण कर रहे थे। जब राजपुत्र, जिनके लिए वही, दूर्वा (दूष) और चन्दन के तिलक किये गये थे, युद्ध-क्षेनु प्रस्थान करने की शीघ्रता कर रहे थे। ii 'पोधप्रवई केषु' का। +'विलयितलय' का। 'गुलाम' का ।

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