Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकधम्कान्ये
इलासिनि सस्यशालिनि खरं *शेफालिलोस्फुल्लिनि क्रौञ्चोन्मादिनि कुन्दनन्दिनि धनाश्वाङ्गमादादिनि । भास्मन्दिनि दातवाहिनि हिमासारावसन्नाङ्गिन काले कामिनि दीर्घरात्रिघटिनि प्रादेत कृषी कोवनि ॥ ४३२ ॥ पैः पूर्व गाढकण्डमलतभुजा भोगनिभुं भवन्त्रैः स्त्रीणां पीनस्तनाप्रस्थपुटित यस प्रप्तम् । सैरथस्त्रद्भिषनिः समरुति शिशिरेऽशाय शैाचकाशे वक्रमायोपधानैरुरसि च निद्दितीयदीलबन्धैः ॥ १३३ ॥ सौधमध्ये घनघुसणरसालिसाः प्रकामं कान्तावक्षोजकुञ्जर्जन विजयिभुजैर्विया मास्त्रियामाः । विख्याता वह्निप्ररितमखिता पाण्डः पिण्डशेषास्ते इमन्ते नयन्ते तव नृप रिपवः शर्वरी पर्वतेषु ॥ ४३४ ॥ अपि च। कुर्वन्तः कामिनीनामभर किसलये सौकुमार्यप्रमार्थं विप्रस्यन्तः कपोले सरसनखपोहा सभङ्गांस्तरङ्गान् ।
रोमाचोदञ्चदशाः स्तनकलायुगे प्रीणित क्रौञ्च कान्ताः प्रायासार सान्द्रीकृत कमलवना हैमनः वान्ति वासाः ॥ ४३५॥
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हमादत्त महाराज ! फिर क्या होनेपर 'प्रत्यक्षतायें' नामके गुप्तचर ने आकर मुझे निम्न प्रकार विज्ञापित किया ? जब प्रधान स्तुतिपाठक-समूह निम्नप्रकार हेमन्तऋतु का वर्णन करता हुआ पढ़ रहा था।
हे प्रिये ! ऐसे शीतकाल के अवसर पर कौन विद्वान पुरुष मार्ग में गमन करेगा ? अपितु कोई नहीं करेगा। जो गन्नों को उल्हासित करता ( पकाता ) हुआ मूँग, उड़द व चना आदि धान्यों से शोभायमान है। जो विशेषरूप से अत्यधिक शीत विस्तारित करता हुआ कौंच पक्षियों को उन्मत्त करनेवाला है। जो कुन्द- पुष्पों को विकसित करता हुआ कियों को गाढ़ आलिङ्गन करनेवाली कराता है। जो सूर्य को अतीव्र (वाक्ष्णता रहित ) करता हुआ शीतल वायु बहाता है एवं जिसमें समस्त प्राणी शिशिर - (पाला) समूह के कारण प्रस्थान भङ्गकरनेवाले होते हैं और जो रात्रियों को दीर्घ (लम्बी - ३० घड़ीवाली) करता है' || ४३२ || हे राजन् ! पूर्व में जो आपके शत्रु, जिनका सुख स्त्रियों का भुजाओं द्वारा दृढरूपसे कण्ठ-प्रण करने में कुम्बलाकार हुए मुजारूप दंडमण्डल द्वारा वक्र किया गया है और जिनका हृदय कियों के उन्नत कुच(स्तन) चूचुक से नीचा-ऊँचा किया गया है, ऐसे होते हुए निवासगृह में शयन कर रहे थे, वे ( शत्रु ) इस इमन्त ऋतु में ठण्डी वायु से व्याप्त हुए पर्यंत- प्रदेश पर सोये हुए हैं। कैसे हैं आपके शत्रु ? जिनके शिर की तकियाँ विषम पाषाणों की हूं और जिन्होंने [भूख प्यास के कारण] दोनों जानुओं का अष्टील बन्ध (आस्थ-युक्त जानुबन्ध ) हृदय पर स्थापित किया है ||४३३|| हे राजन् ! जिन तुम्हारे शत्रुओं ने, जिनका शरीर प्रचुर काश्मार- केसर से चारों ओर से यथेष्ट लिह किया गया था और जिनकी भुजाएँ त्रियों के कुच ( स्तन ) कलशों का मध्यप्रदेश स्वीकार करने से विजयश्री से मण्डित थीं, पूर्व में लम्बे प्रहरोंवाली रात्रियाँ शीतल वायु-रहित महलों के मध्य में व्यतीत की थीं, वे आपके शत्रु इस हेमन्त (शीतकाल ) में बुझी हुई समीपवर्ती अमि की फैली हुई भस्म से उज्जल वर्णवाले और उर्वरित शरीर-युक्त (मांस व वस्त्रांद से रहित ) हुए पर्वतों पर रात्रियों व्यतीत कर रहे हैं || ||४२४|| कुछ विशेषता यह है कि जिस काल में हेमन्त ऋतुसंबंधी ऐसी वायु वह रहीं हैं, जो कि कामिनियों के ओष्ठपदों की कोमलता लुप्त कर रही हैं। जो त्रियों के गालों पर तत्काल कामी पुरुषों द्वारा दिये हुए नखक्षतों के उस द्वारा भन्न होनेवाली बलिरेखाएँ स्थापित कर रही हैं एवं स्त्रियों के कुच (स्तन) कलशों के युगल पर रोमान्च उत्पन्न करने में प्रवीण ( चतुर ) होती हुई जिनके द्वारा क्रौंच पक्षियों की कान्ताएँ संतुष्ट की गई हैं और जिन्होंने पाला-समूह द्वारा कमल-वन आर्द्र किये हैं ||४३५|| हे राजाधिराज | वह डेमन्त ऋतु
* 'शेफालिकोट फुलिनि' क० । x'शर्वरीः' क० ।
२. परिधि अलङ्कार । ३. परिवृत्ति अलङ्कार |
'साइकृत' ख० । १. समुच्चय व आक्षेपालहार ४. रूपकालङ्कार ।