Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 405
________________ ३८१ तृतीय आवास: सीकस तरह फिसला प्रभागे रुककरोमनिष्पन्न कम्बलो कलीखात्रिकालिन शेफाि कुलकर के कारवस्फारिणि मीरारोष्ण रामरामणीयकनिवे कमलिनीमिवाहिनि जावोजकमणमजात भाषे वरणिती रिणीजलकेलिन्यसनिमि सरस्वतीसलिलोदवालतापसे नवयौवना मास्न शोष्यनिषेवणादेशिन प्रागुपधूममभिवात बलभि गर्भे घनषुसृणरसराग द्विगुणरमणीयमसि लादारपरिचयप्रसाधन प्रबंधित प्रवृधूम ध्वजा धनानुबन्धे समस्तसस्य रोमाञ्चकशुकाचारिणि मखयमेला शानर्तनकुतुहल व देवदिशः परिसर्पति हेमने मति, नलिनीवन यदुःखित इन मन्दबुति मार्तण्डमण्ड शीतपातभयसंकुचितेचित्रव भुपु दिवसेषु आयातजानुत्रि मन्दप्रयाणदीर्घासु रात्रिषु सरसुधासार संवर्पित मिलिम्पलोक इव क्षीणतेजसि सुचारकिरणे, जिसमें शीतल जलविन्दु समूह द्वारा तरुप वृक्षों की कोपलें और अप्रभाग कम्पनशील होरहे हैं। जिसमें रकों (मृगविशेषों) के रोमों से रचे हुए कम्बल धारण करनेवाले लोगों ( शूद्रों ) का लीला-बिलास (चतुरतापूर्ण वाली क्रीड़ा ) पाया जाता है। जिसमें शेफालि पुष्पों के विकसित करने की आकारा पाई जाती है। जो क्रौंच पक्षि-समूहों के उन्नत शब्द प्रचुर ( महान् ) करनेवाली है। जिसने अविच्छिन्न रोधवृक्षों की पुष्प- पराग-व्याप्ति ( विस्तार ) द्वारा दिशाओं के मुख ( अमभाग ) शुभ्र किये हैं। जो कुन्दपुष्प - पल्लवों को संतुष्ट करती हुई चन्दनवृक्ष- शाखाओं के बगीचे की मनोशता का मन्दिर ( स्थान ) व कमलिनियों के पत्तों को दद्दनप्राय ( जलानेवाला ) पाला धारण करनेवाली है। गङ्गा-जल में स्नान करने के फलस्वरूप जिसमें जड़भाव ( मन्द उद्यम या जल-प्रहण ) उत्पन्न हुआ है। यमुनानदी की जलक्रीड़ा करने में जिसका आम है। जो सरस्वती नदा के जल 'उदवास' नाम का तपश्चयां करनेवाला तपस्वी है। जो नवीन युवती स्त्रियों के कुच (स्तन) कलशों की उष्णता को सेवन (आलिङ्गन) करने का आदेश देती है ( प्रेरणा करती है जिसमें प्रिय अगुरुधूप के धूम का उद्गम और वायु-राहत बल भी ( छज्जा ) का मध्यभाग पाया जाता है। जिसमें घना तरल कसर कराग द्वारा रमाणया क मन दुगुने हुए हैं । जो विशेष विस्तीर्ण प्रावार (हिम व शात वायु-निवारक उष्ण वखावशेष ) का परिचय करानवाला हू । जिसमें प्रज्वलित अग्नि की सेवा का अनुबन्ध ( प्रारम्भ की हुइ वस्तु का परम्परा से चलना वृद्धिगत होरहा है। इसीप्रकार जो समस्त प्राणियों का रोम रूप कञ्चुक ( कवच या चाला ) धारण कराता हूँ एवं जो उत्तरदिशा से बहती हुई ऐसी भालूम पड़ती है--मान- इसमें मलयाचल पर्वत वटी की चन्दन वृक्ष-शाखाओं को नर्तन कराने का मनारथ उत्पन्न हुआ है । । हे मारिदन्त महाराज ! पुनः क्या होनेपर 'प्रत्यक्षतार्क्ष्य' नामके गुप्तचर ने आकर मुझे निम्नप्रकार विज्ञापित किया ? जब सूर्यबिम्ब अल्पतेजवाला होरहा था, इसलिए जो ऐसा मालूम पड़ रहा था मानोंकमलिनियों के न को दीनता ( शीत से उत्पन्न हुआ दशहदुःख ) से ही दुःखित हुआ है। जब दिन लघ ( छोटे ) होरहे थे, इसलिए जो ऐसे प्रतीत होरा येमानों-शीत के भागमन से उत्पन्न हुए भय से ही संकुचित होरहे हैं। जब रात्रियाँ मन्द गमन करने से दीर्घ ( लम्बी ) होरही थीं, इसलिए जो ऐसी मालूम पड़ती थी मानों जिनके जानु शीत से जड़ ( मन्द ) होगये हैं एवं जब चन्द्रमम्बाल क्षीणतेजवाला होरहा था इसलिए जो ऐसा मालूम पड़ता था मानों - जिसने भरते हुए भक्त समूह द्वारा देव-समूह को मलीप्रकार संतुष्ट किया है' । + 'कोकीला विलासिनि' फ०स०ग०व० । + फेंकार (कोंकार) स्फारिणि हग- १. उत्प्रेक्षाकार ।

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