Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 409
________________ ३८५ तृतीय आवास: प्रबुद्वान्द्रादर्श निबिड डोमर अमरितभुवनाभोगेषु नागेषु प्रधावमानेषु . S प्रवेगखुरखर मुखारधमेदिनीवान विराजित्रु वाजिषु, संवरम्धाराराप्रभोगिवदनेषु स्यन्दनेषु प्रसर्वस्तु समाभानुशमनिर्भरक्रमाकान्तिपु पदातिषु, + इर्षमानेषु पानोसारितसर विमानसंबाधेषु पोषेषु निधानासु तुमुलकोलाहललोकनोम्मतगतिषु नमरसमिषिषु आसीदत्सु गगनमतिवेगश्रम श्वासस्फुरिताधरेषु विद्याधरेषु मति कृराकहदोहदा हाइना दे नारदे, संजायमाने नवीनवरवरगोदेवदारिकासदसि समुलति विधूसरियामा क्रोधावेधावभाविर्भवन्मूलबन्धस्तु स्वङ्गन्तुरङ्गाननपत्र नवश (वेशभिस्तारसारः । आसीदस्य दनाप्रध्वनिभृतभरः पर्यटक अरेन्द्रस्फारव्यापारकर्णाइति विततशिखः पांसुरू व्यधावीत् ॥४३८॥ तिरस्कृत्यैवैतवनमखितं जातरभसः कथं स्वर्गत्रीणाम्मलिनितमुखः पोलुरभवत्। इति प्राक्षामः सुभयादासजननैः स मूमोल सहनु रुधिरै रामिरुचिभिः ॥४३९४ जब सेना के हाथी, सुवर्णआदिमय जलस्फोटक, सुवर्ण- आदिमय ( कृत्रिम ) अष्टमीचन्द्र ( अर्धचन्द्र) व दर्पणों से जड़ी हुई गुडा ( झूलों) से उत्पन्न होनेवाले उत्कट भय से जिनके द्वारा विस्तृत जगत भयभीत किया गया था, शीघ्र प्रस्थान कर रहे थे। जब घोड़े, जो कि प्रष्ट वेगपूर्वक संचालित खुरों ( शफ-टापों ) के लोहकण्टक सरीखे कठोर अप्रभागों से आरब्ध ( मण्डित ) पृथिवी रूप यादिवादन ( बाजे के बजाने ) से शोभायमान हुए सरपट दौड़ लगा रहे थे । जब चक्र - ( पहिए ) धाराओं के भारों द्वारा शेषनाग के हजार मुख ( फरशा ) कुटिलित करनेवाले रथ प्रविष्ट होरहे थे । जब ऐसे पैदल सैनिक तेजी से दौड़ रहे थे, जिनकी चरण-व्याप्ति संग्राम-प्रीति के कारण गाढ थी । जब योद्धालोग, जिन्होंने धनुष-मार्जन द्वारा कौतुकवश आए हुए देवविमानों की संकीर्णता ( जमघट ) दूर की है, हर्षित होरहे थे। जब देव-समूह, जिनका गमन विशेष कोलाइटदर्शन से प्रमाद युक्त होगया था, अत्यन्त समीप में देख रहे थे। जब विद्याधर लोग, जिनके अधर (ठ) आकाश में गमन की उत्सुकता से उत्पन्न हुए खेदोच्छ्वासवश कम्पित होरहे थे, आसीन होरहे थे। जब युद्ध-मनोरथ से श्रनन्द शब्द करनेवाला नारद द्वर्षपूर्वक नृत्य कर रहा था । जब देव वेश्या-समूह नवीन बरों के स्वीकार करने में उत्कण्ठित मनवाला होरहा था और जब देषियों के केशपाशों को परिपूर्णता को विशेषरूप से धूसरित करनेवाली धूलि उड़ रही थी । अथानन्तर प्रस्तुत गुप्तचर यशोधर महाराज के प्रति पुनः युद्ध घटनाओं का निरूपण करता है हे राजन् ! ऐसी धूलि आकाश मण्डल की ओर उछली, जिसका प्रथम उत्थान क्रोधावेश से दौड़ने का महान् आडम्बर करनेवाले सुभट-समूहों से प्रकट होरहा है। जो शीघ्र दौड़नेवाले घोड़ों के मुखों की उच्छवासवायु से विशेष विस्तृत होरही थी। जिसका समूह प्राप्त होती हुई रथों के ऊपर बँधी हुई जाओं ( पताकाओं ) द्वारा निश्चल होगया था एवं जिसके अग्रभाग प्रस्थान करते हुए श्रेष्ठ हाथियों के प्रचुर प्रवृत्ति युक्त कर्णताडन द्वारा विस्तीर्ण होगए थे ||४३८|| हे राजन् ! तदनन्तर वह धूलि लालकान्तिवाले ऐसे रुधिरों से मूलोच्छिन्न ( अड़ से भी नष्ट ) होगई, सुभटों के वक्षःस्थलों से जन्म प्राप्त करनेवाले जिन्होंने धूलि के प्रति इसकारण से ही मानों-कोध प्रकट किया था कि उत्पन्न हुए वेगवाली इस धूलि ने जब समस्त मृत्युलोक पूर्व में ही तिरस्कृत कर दिया था तब फिर किसकारण यह स्वर्ग - स्त्रियों के मुख ग्लान X 'प्रगखररारब्ध' क० । रथचक्रधारा' क० । + 'विकुर्वाणेषु' क ग 'समिधाना क * सुरज्ञानन' क० । १. अर्थव्यक्ति काम के गुण से विभूषित । BE

Loading...

Page Navigation
1 ... 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430