Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकपम्पूकाव्ये धनधर्मजालोदेल्लमविगलन्मजयरसासरानुसारितसुन्दरीपयोधरवपुषि तीमातपातपावसंपर्क स्फुटन्मौक्तिकविरहिणीहल्याहारे स्पालकमलालयालायमानमहासरसि स्मरवरावेगसंगतानाङ्गसङ्गसंजातक्वायक्वध्यमानमस्केलिदाधिकापडलकामने मख्याइसमेखलाराजधियेलानिलनीहारसीकरस्यन्दसावन्दनमाश्पलालसले लिहानकामिनीमनसि शिशिरगिरिगुहागृहोत्सनासीनसीमन्तिनीकुचामृतकृम्भपरिसम्भनिर्भरनभश्वरणिकरे मगनिनावनीवनविहारहरिणीविषाणकोणकण्डूयनसुखस्वापोमुखकुरकपरिप्रदि तोरपरून प्रौढपाउपतलसरङ्गिणीसरोरुहकहरविहरत्कफहंसनियो महानराहावगाहविप्राहामाणवाहिनीकहासादियासि नि:शल्पतःलचिर वलकोलसुष्टायलोके अविच्छिन्नमायावनीध्ररन्धाराधनोपुरसिन्धुरद्विपि करपुष्करावशेधनदनिममसामनमूहकारसमीरसंम्पमानस लिलदेवतादेहे रोमन्थमन्थरमुखमाग्रीनिवहनिरुद्धबुध्नाश्वस्थशासिनि खरातफ्तपनताम्यन्मपमुक्तस्ठीतफ-फलोपहारिसपलवारूपालिपीलुपर्यन्ते नितान्तीसप्तायसपूर्णसमानमार्गरजसि निवाघानेहसि, भवतः प्रताविव 4 प्रधानोभवस्प मार्तण्डमण्डलेषु यशःप्रसरेविवातिदीर्थेषु दिवसेषु निद्रा की अधिकता से मध्याह्नवेला दुःख से निवारण करने के योग्य है। जिसने नवयुवती स्त्रियों के कुचकलशों का शरीर । स्थान ) घने स्वेदजल के विस्तार द्वारा विशेषरूप से गलनेवाले विस्तृत चन्दनरस से ज्यान किंचा है। जिसमें विरहिणी स्त्रियों के वक्षःस्थल का हार ( मोतियों की माला ) तीव्र धूपरूपी सद्यः प्रागहर च्याधिरूप अग्नि-स्पर्श द्वारा दूटते हुए मोतियों से व्याप्त है। जिसमें महासरोवर शुष्क होने के फलम्बरूप स्थलकमलों (गुलाब पुष्पों) की क्यारी-सरीखे प्रतीत होरहे है। जिसमें जलकीदावाली माडियों के कमलवन ऐसे विशेष सत्रण जल द्वारा रॉधे ( पकाये ) जारहे हैं, जो कि कामज्यर के आवेग में व्याप्त हुए नियों के शरीर-सङ्गम से उत्पन्न हुआ था। जिसमें कालसर्पणियों का चित्त ऐसे चन्दन वृत्रों के अालिङ्गम करने में विशेष उत्कण्ठित होरहा है, जो कि मलयाचल-कटिनी से ठाडित होती ही समुद्र की तीरवर्ती लहरों के शीतल जलकणों के क्षरण से आई (गीले ) होरहे थे। जिसमें विद्याधरसम्ह हिमालय पर्वतसंबंधी गुफारूपी गृहों में उपविष्ट ( बैठी) हुई कमनीय शामिनियों के कुचरूप अमृतकलशों के गाड़ आलिङ्गनों में तत्पर होरहे हैं। जिसमें मृग-समूह पर्वतों के अधस्तन भूमिवर्ती बनों में संचार करनेवाली हिरणियों के नामों ( सींगों के अग्रभागों) के खुजाने से उत्पन्न हुई सुखनिद्रा में उत्कण्ठित होरहा है। जिसमें कलहंस श्रेणी नदी-तटोत्पन्न महावृक्षों के अधोभाग पर पड़नेपाली नदी के कमल-मध्यभागों पर विहार कर रही है। जिसमें जलजन्तु ( मगर-मच्छ-आदि ) ऐसे नदियों के तालाब या झीलें प्राप्त कर रहे हैं, जो कि जंगली महान् शुकरों के विलोहन द्वारा स्वीकार किये जारहे थे। जिसमें मैंसाओं के भुए निडर होकर तालाब की कीचड़ में लोट रहे है। जिसमें सिंह धनी बायावाले पर्वत-रिवरों की धाराधना में निडर है। जिसमें जलदेवताओं के शरीर सूंड का अग्रभाग उठाकर जल में छुवे हुए हाथियों की उच्छवास यायु द्वारा सेवा-योग्य किये जारहे हैं। जहाँपर ऐसे पीपल के वृक्ष है. जिनकी जई रोथाने में सुस्त मुखवाली गायों के झुण्डों से घिरी हुई है और जिसमें छोटे तालाब के निकटवर्ती पालि वृक्षविशेषों का पर्यन्तभाग अत्यन्त उष्णा सूर्य से दुःखी होनेषाले ऊँटों के मुंखों द्वारा छोडे हुए प्रचुर फेनरूप पुष्पों द्वारा उपहार-युक्त किया गया है एवं जिसमें मार्ग-धूलि नितान्त उत्तप्त (उष्ण) लोहचूर्ण-सरीखी है।
अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज ! उक्त प्रीष्मऋतु में निम्नप्रकार घटनाओं के घटने पर मैंने उक्त उद्यान का अनुभव करके प्रीष्मऋतु संबंधी मध्याह-वेलाएँ व्यतीत की-जंब सूर्यमण्डल उसप्रकार विशेष तीव्र होरहे थे जिसप्रकार आपके प्रताप शत्रुओं में विशेष तीव्र होते हैं। जब दिन आपकी कीर्ति
*'कालोलल्लुलायकलोके' क ।