Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 386
________________ ३६२ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये निर्मशम्भःसंभृतेषु सासु, समुद्रसलिणसहसेविौनिक्षमालावभासिनीलिव जलाधरोपरेषु सी सहित, समरधुरंधराशिचापापारभार ब. निचलाराधनयम्यधनुषि विजिगीषुकोके, किलिसंधयोचितकारोचमाममौलिकुलासेषु माखिशिफोरमदेभेषु, भीमप्रशिलिन्ध्रवन्धुरेषु भराभागेषु, लालीप्रसपाटलिमधामनि कन्चनजाने, यूधिकाप्रमूरिमा विलासिषु शिलोचपशिलान्तरालपरिसरेषु, रमाकुरोमाधकबुकिनि विवरभूधरे, मिरिमणिकामुकुलमणिसाने गण , सुरणोपप्रचारसोणसोचिषि वसुंधरवलये, सामपिजयिषु कुस्कीमाकुम्भेषु, मनोभनमलिककालवियु - बिजम्ममाणेषु केसकी कुसुमपत्रेषु, अपि च-उन्मागम्मिसि मेघमन्दनभसि छन्नांशुमतेजसि चुभ्यस्त्रोतसि रुद्धपान्धसरसि स्फूर्जतस्विसि । __कंदर्पोकसि मत्तकिमनसि प्रेमीयते चेतसि काले याति कथं च स्ववयसि प्रौहां प्रियां मुञ्चसि ॥३०॥ संबंधी निवाप' (पितृवान श्राद्ध ) के जल-पूर्ण सकोरे गाढरूप से जल से भरे हुए होते हैं। जब बौदलों के मध्य में चमकती हुई बिजलियाँ ऐसी मालूम पड़ती थीं—मानों-समुद्र के जलों द्वारा भास्वादन की गई बयानल अग्नि की ज्वालाएँ ही चमक रही हैं। जब शत्रुओं पर विजयश्री का इच्छुक लोक (राजाओं का समूह-आदि), जिसके धनुष धनुष-भत्रकाओं ( धनुष स्थापन करने का चमड़े का थैला -आदि आधार ) को आराधनामात्र से कृतार्थ थे, ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-कामदेवरूपी इन्द्र द्वारा ही जिसे धनुष-धारणरूप व्यापार का भार अपेण किया गया है--आया दीरई है। जब वृक्षों के अमों ( पत्तों ) के उत्पत्तिस्थान ( शाखाएँ ) ऐसे काक पक्षियों के झुण्ड से व्याप्त थे, जो कि करे केला वृक्षों की छालों को ग्रहण करने योग्य चोंचों से शोभायमान थे। जब पृथिवी के प्रदेश घने कुकुरमुत्तों से व्याप्त थे। जब दिशामों का मण्डल ( समूह ) जलपिप्पली (वृक्षविशेष ) की कलियों के फूलों की समावेत लालिमा)का स्थान होरहा था। जब पर्वतों की चटानों के मध्यवर्ती परिसर ( पर्यन्त प्रदेश-आँगन ) जुही फूलों की सुगन्धि का विलास ( शोभा ) धारण कर रहे थे। जब बैडूर्य मसियों को उत्पन्न करनेवाला पर्वत रत्नाकररूप रोमाञ्च-कञ्चुक (बस्तर) धारण किये हुए था। जब क्षुद्र (छोटे) पर्वत, जिनके शिखर कुटज-पुष्पों की कलियों से सुशोभित होरहे थे। जब पृथिवी-वलय ( भूमि का घेरा गा कुअ-लताओं से 'आम्लादित प्रदेश) इन्द्रबधूटि कीड़ों के विस्तार से लाल-कमल-सी कान्ति धारण कर रहा था। इसीप्रकार अब पर्वतों के लताओं से आच्छादित प्रदेश शालवृक्ष और अर्जुनवृत्तों से शोभायमान होरहे थे और अब केतकी-पुष्पों के पत्ते कामदेव के बाणों की आकृति (आकार-सदृशता ) धारण कर रहे थे। प्रसा-हे मारिदत्त महाराज ! जब 'अकालजलद' नामके स्तुतिपाठक को निम्न प्रकार स्तुति द्वारा क्रीडाशाली किये जारहे मनवाला मैं वर्षा ऋतु की श्री ( शोभा) का अनुभव करता हुआ स्थित था-- हे नाथ ! ऐसे वर्षाकाल में आप नवयुवती प्रिया को कैसे छोड़ते हो? और उत्पन हुई नई जवानी में किमप्रकार दूसरे देश को प्रस्थान कर रहे हो? कैसा है वर्षाकाल १ जिसमें नदियों के दोनों तट उल्लाइन करनेवाली जलराशि वर्तमान है। जिसमें आकाश मेघों से प्रचुर ( महान् ) है। सूर्य का तेज आच्छादित करनेवाले जिसमें जलप्रवाह भले प्रकार उछल रहे हैं। जिसमें रास्तागीरों का वेग रोका गया है। जो अप्रतिहत ( नष्ट न होनेवाले ) व्यापारवाली (चमकती हुई) विजलियों से महान और कामदेव का निचलारामनवराधान्यसनापमनुषि क.। X स ग प्रतियुगले मु. प्रतिवत् पाठः । ii 'शाखिशिष्योगमदेशेषक। *काले यासिक कर्थ वयसि प्रोडो प्रियो चम्बसिक। "पितृवान निवापः स्यात' इतिवषयात ।

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