Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 393
________________ तृतीय श्राधासः इति संधिविप्रहिणः, तवैत चनादिक्षितसवयानाम् अपरिमितकोपप्रसरावधीरिसालपुरुषालापार्गलानाम् ससंरम्भमन्योन्यसंवट्वटरकोटीरकोटिधतिमाणिक्यनिकर कीर्णतया स्वकीयावलेपामलरफुलिङ्गचलितमित्र कुश्मितलं कुर्वसाम् इतस्ततः समुच्छलितापतन्मुक्ताफल प्रकसभिरारसनहारारभिरागामिगन्यजयस्मयावसरमुरमुन्दरीकरविकीसमवर्षमिव प्रकाशयता बोराणां धाम्पोम्यादापालोकमव्याजेन वास्पाकर्णांबभूव । तथाहि-त्र तावस्कोदण्डमार्तण्डः साटोप सपनवंशविनाशपिशुमधुकुरिभङ्गानिर्भरभालस्वेदजलेन ज्यां मार्जयन इस्तमाई से इनमेवममापिट 'श्रीपद मित्रपक्षाणां वरदण्डं च विद्विषाम् । वेवस्थास्य पदाम्भोजद्वयं शिरसि धार्यताम् ॥४॥ मो चेत्कोदण्जमाण्डकाण्डसजितमस्तकः । यास्यस्याजो स ते स्वामी हसाण्डवडम्परम् ॥४०॥ थी वे ( युद्धाङ्गण की संगम भूमियाँ ) फिर से यशोधर महाराज के साथ किये जानेवाले युद्ध में शत्रुभूत अचलराजा की सेना में मरे हुए वीरों की हड्डियों को धारण करनेवाली होकर पूर्व की लक्ष्मी ( शोभा) की धारक होयें। अर्थात्-यशोधर महाराज की तलवार के अप्रभागवर्ती पानी में डूबने से मरे हुए शत्रु-समूहों की मस्तक-श्रेणियों से व्याप्त होने की शोभावाली हो ॥४०५॥ अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज ! किसी भवसर पर मैंने ( यशोधर महाराज ने ) जिसप्रकार अपने प्रधान दत के उपयुक्त वचन श्रवण किये थे उसीप्रकार ऐसे वीर पुरुषों के निम्न प्रकार वचन उनके परस्पर के वचनों को देखने के बहाने से भवरण किये, जिन्होंने यशोधर महाराज संबंधी प्रधान दूस के उपर्युक वचनों द्वारा 'प्रचल' नरेश के 'दुकूल' नाम के दूत का अभिप्राय जान लिया था और जिन्होंने मर्यादा को उल्लङ्घन करनेवाले क्रोध-विस्तार द्वारा गुरुजनों की निषेध ( युद्ध रोकनेवाली) वचनरूपी परिपा (किवानों का बेड़ा ) तिरस्कृत की थी एवं वहाँ की बद्धभूमि पर वीर पुरुषों के क्रोधपूर्वक परस्पर के संचलन ( धकाधकी ) से टूटते हुए मुकुटो के अप्रभागों पर जड़े हुए माणिक्यों ( लालमणियों ) का समूह विखरा हुआ था, इसलिए वह भूमितल ऐसा मालूम होरहा था-मानों-वे वीरपुरुष अपने मद या क्रोधरूपी अग्नि-ज्यालाओं से उसे प्रज्वलित कर रहे हैं और जो ( वीर पुरुष) घुटनों तक लम्बी पहनी हुई मोवियों की मालाओं से, जिनके प्राप्त हुए मोतियों के समूह यहाँ-वहा उछल रहे थे, ऐसे मालम पढ़ते थे-मानों-वे भविष्य में होनेवाली युद्ध-विजय की वेला ( समय ) के अवसरों पर देवियों के करकमलों द्वारा फेकी हुई । की हुई ) पुष्पवृष्टि ही प्रकाशित कर रहे हैं। अथानन्तर उन वीरों के मध्य में अनुक्रम से 'कोदण्डमार्तण्डा नाम के वीर पुरुष ने आडम्बर सहित शत्रु-कुटुम्ब का नारा सूचक झुकुटि भगा ( भोहों का चढ़ाना) पूर्वक गाद मस्तक के स्वेद-जल द्वारा धनुप-छोरी उल्लासित करते हुए उसे ('अपल' नरेश के 'दुकूल' नाम के दूत को ) हाथ से पकड़ कर निम्नप्रकार कहा 'हे "दुफूल' नाम के दूत ! इस यशोधर महाराज के दोनों चरणकमल, जो कि मित्रों को लक्ष्मी-मन्दिर ( लक्ष्मी देने के स्थान ) हैं और जिनमें शत्रुओं को तीन दण्ड देने की सामर्थ्य है, मस्तक पर धारण करो। यदि ऐसा नहीं करोगे ( यदि तुम्हारा 'अचल' नरेश उक्त महाराज के दोनों चरणकमल मस्तक पर धारण नहीं करेगा) तो वह तेरा स्वामी ( अचल नरेश) 'कोदणमाड' नाम के वीर के बाण द्वारा विदीर्ण किये गये मस्तकयाला होता हुआ युद्धभूमि पर कबध ( विना शिर का शरीर-धड़ के बाहुदण्डों को विस्तृत नचानेवाला होगा॥४०६-४०७ ।। १. देव-भलंकार । २. बीररसप्रधान जाति-अलंकार ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430