Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 382
________________ ३५८ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये अलककिसएशनां भूलतालाधिनीनां नयनमधुलिहानां चारुगण्डस्थलीनाम् । कुचकुसुम नपानां स्लीवाणिकानामवनिपु कुरु केली: कि नूपानान्तः ॥३१॥ लसदलकतराः कान्तनेवारविन्दा: प्रचलभुजस्तान्ता: पीनवक्षोजकोकाः । अतनुजवनकूलाश्चारलावण्यवारस्तव नृप जलकेलि कुर्वतां स्त्रीसरस्थः ॥३८२॥ उरुध्यासान मन्दितरया रुद्धा नितम्यस्थलनाभीकन्दरदेशमारित्रलनव्यालोलकनावलिः । बाहस्पी तुनर्सगललदरिका पीनस्तात्तम्भिता जगवनजलापि खेउबला कूलंषा वाहिनी ॥६८३।। गम्भोरनाभीवालभिप्रवेशाइल्पोदकाभूत्तटिनी मुहुया । स्त्री-गां पुनः सातिभृता निकामं प्रियापराधसत्रद पूरैः ॥३८४॥ कषाय-युक्त ( कसले । हुए मुख का चुम्बन कीजिए' ।। ३८॥ हे राजन् ! आप ऐसी स्त्रीरूपी उद्यान श्रेणियों को पृथिवियों पर काड़ा कीजिए, दूसरे बगीचों के मध्यावहार करने से क्या लाभ है ? अपि तु कोई लाभ नहीं। जो कशरूपा कोपलों से सुशोभित होती हुई ध्रुटि ( भौहे । रूपी लताओं से प्रशंसनीय है। जो नेत्ररूपी भारां और अत्यन्त मनाहर गाज-स्यालयों से युक्त होता हुई कुचरूपी पुष्प-समूह से सुशोभित है' ।। 11 ह.राजन् ! ऐसा स्त्रीरूपा सरासयाँ ( सरावर-तालाव ) आपके लिए जलकाड़ा संपादन करे, जो शोभायमान होरहे केशरूप तरङ्गोंवाली ओर मनोहर नेत्ररूपी कमलों से व्याप्त हैं। जिनमें भुजारूपी लताओं के प्रान्तभाग शोभायमान होरहे हैं और जिनमें पीन ( न तो अत्यन्त स्थूल, न विशेष लम्चे, गोलाकार, परस्पर में सटे हुए व ऊंचे) कुच (स्तन) रूप चक्रवा-चकवी सुशोभित होरहे हैं। जो महान जवारूप तदोवाली हैं एवं जिनमें मनोज्ञ कान्तिरूपी जल-राशि भरी हुई है ॥ ३८२ ।। । हे राजन् ! काड़ा करता हुई नारूपी नद जवादनजला ( जाँघोंपर्यन्त जल से भरी हुई ) होकर के भी कूलकपा( अपना तट भेदन करनेवाला) है । यहाँपर विरोध मालूम पड़ता है, क्योंकि जिस नदी में जांघों तक जल होगा, यह अपना तट गिरानेवाली किसप्रकार होसकती है? अतः इसका समाधान किया जाता है कि जा (स्त्री) कूलंकपा ( स्मर-मन्दिर-बच्चादानी में पीड़ावाली-रोग-युक्त) है, इसलिए जवादनजला ( जायों तक प्रवाहित होनेवाले शुक्र-रज-से व्याप्त ) है। इसी कार जे जाँघ या कूल्हे की हड्डियों के परस्पर मिल जाने की पराधीनता के कारण मन्दवेगवाली ( धीरे-धीरे गमन करनेवाली ) है। जो नितम्ब (स्त्री की कमर का पिछला उभरा हुआ भाग) रूप ऊँचे स्थलों से रुकी हुई है। अर्थात्जिसप्रकार ऊँचे स्थलों के आजाने पर नदी का प्रवाह रुक जाता है उसीप्रकार स्त्री भी स्थूल नितम्बों के कारण गमन करने से रुक जाती है-वेगपूर्वक गमन करने में असमर्थ होजाती है। जिसमें नाभिरूपी गुफास्थान में प्रवेदजल व्याप्त होने के कारण चक्वल व [शुभ्र ] फेनश्रेणी पाई जाती है। जिसमें भुजाओं के गाढ़ आलिङ्गन से शरीर-सिकुड़न और दृष्टिरूपी लहरें सन्मुख प्राप्त होरहीं हैं और जो पीन (मोटे व कड़े) फुचकलशों से रुकी हुई शोभायमान होरही है॥ ३८३ ॥ जो स्त्रियों की त्रिवली ( उदर-रेखाएँ) रूपी नदी बार-बार अगाध (गहरे) नाभितलरूपी वाँसों के पार में संचार करने के फलस्वरूप अल्पजलबाली ( प्रस्वेदजल-रहित) थी, वह ( नदो ) पति के अपराधवश हरणशील अश्रु-प्रवाहों से बाद में प्रचुर. जस से भरी हुई होगई" ।। ३८४ ॥ 'मन्दिरतया' क. 4. 1 A 'वेग' टिप्पणी ग० । 'मन्दितरया' च• मुक्तिप्रतिवत् । विमर्श: यद्यप्यर्थभेदो नास्ति सवापि मु० प्रतिस्थपाठः समीचीनः-सम्पादकः । १. समुचयालंकार । ३. रूपफ, समुच्चय व साक्षेपालंकार । ३. रुपकालंकार । ४. रूपक व विरोधाभास-अलहार। ५. रूपकालबार ।

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