Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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तृतीय भावासः
अव्यक्तरसगर्ध्वं यस्स्वच ं वातातपातम् । प्रकृत्यैवाम्बु तस्पध्यमस्य क्वचितं पिबेत् ॥ ३७१ ॥ वारि सूर्येन्दुसंसिद्धमद्दोरात्रास्परं स्यजेत् । दिवासिद्ध ं निशि स्याज्यं निशिसिद्ध दिवा स्यजेत् ॥ ३७२ ॥ वीरश्रीप्रणयगुरुः कल्पमपल्लवोन साक्षात् । ताम्बूला प्रसस्तु करस्तव स्लीव पोलचित्रकरः ॥ ३७३ ॥ कामकोपातपायासयानवाद्दनवश्यः । भोजनानन्तरं सेष्या न जातु हितमिच्छता ॥ ३७४ ॥
मन्दसुन्दर विनोदविदां वचोभिः श्रङ्गारसारसुभर्वनिताविलासैः ।
आपके लिकरणैः शुकसारिकाण भुक्त्वाविवाहय महीश दिनस्य मध्यम् ॥ ३७५ ॥
इति वैद्यविद्याविलासापरनामभाजी रसानां शुद्धसंसर्गभेदेन त्रिष्टियनोपदेशभाजः समानभिजः प्रसूतसूकामृतपुनरुको पदंशदशनं प्रत्यवसान समाचरस |
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कदाचिदनवरत जलजलार्द्रान्दोलनस्यन्दिमन्दानिलविनोददो दिन साम्यनियो कटुचितमध्यंदिनसमये किरणों व वायु द्वारा नष्ट होचुका है, पीना चाहिए' ||३७= ॥ ऐसा पानी, जिसका रस व गन्धगुण कटरूप से नहीं जाना जाता और स्वच्छ तथा वायु व गर्मी से ताड़ित किया गया है, स्वभाव से ही मध्य ( हितकारक ) है एवं जो पानी, उक्त गुणों से शून्य है। अर्थात् जिसका रस व गग्धगुण प्रकट रूपेण जाना जाता है और मलिन तथा वायु व गर्मी से ताचित नहीं है, उसे उबालकर पीना चाहिए * ॥ २७९॥ जो जल, सूर्य और चन्द्र द्वारा सिद्ध हुआ है, अर्थात् -- --जल से भरा हुआ घड़ा सबेरे धूप में चार पहर तक खुला रखा जाता है और रात्रि में भी चन्द्रमा की चाँदनी में रात्रि भर रक्खा जाता है उस पानी को 'सूर्य इन्दु संसिद्ध' कहते हैं, उसे दूसरे दिन व दूसरी रात्रि में पीना चाहिए, उसके बाद में नहीं पीना चाहिए । इसी प्रकार दिन में उबाला हुआ पानी दिन में ही पीना चाहिए, रात्रि में नहीं और रात्रि में उबाला हुआ पानी रात्रि में पीना चाहिए, दिन में नहीं। अन्यथा — उक्तविधि से शून्य पानी अपथ्य ( अहितकर ) होता है || ३७२ || हे राजन ! आपका हस्त, जो कि बोरलक्ष्मी को स्नेोत्पादन - शिक्षा का आचार्य है और याचकों के सन्तुष्ट करने के लिए साक्षान् कल्पवृक्ष - पल्लव है एवं जो स्त्रियों के गालों पर चित्ररचना करनेवाला है, ताम्बूल प्राप्ति हेतु प्रवृत होवे || ३७३ || हे राजन् ! हित ( स्वास्थ्य ) चाहनेवाले मानव को भोजन के पश्चात् स्त्री-सेवन, क्रोध धूप, परिश्रम, गमन, घोडे आदि की सारी और अग्नि का ढापना ये कार्य कभी नहीं करना चाहिए ॥ ३७४॥ हे राजन् ! भोजन करके मध्याह्न-वेला सुख उत्पन्न करने के कारण मनोहर लगनेवाली कीड़ाओं के देता विद्वानों के वचनों (सुभाषित-गोष्ठियों ) द्वारा और उत्तम शृङ्गार से रमणीक स्त्रियों के विलासों (मधुर चितवनों ) द्वारा तथा तोता व मेनाओं के साथ श्राभाषण- क्रीडा-विधानों द्वारा व्यतीत कीजिए ॥ ३७५ ॥
प्रसङ्गानुवाद - अथानन्तर हे मारित महाराज ! किसी अवसर पर मैंने ऐसी ग्रीष्म ऋतु मैं कमनीय कामिनीशन सरीखे 'मदनमदविनोद' नामके उद्यान (बगीचे) का चिरकाल तक अनुभव ( उपभोग - दर्शन आदि ) किया । तदनन्तर उस पगीचे में वर्तमान ऐसे फुटवारों के गृह में प्यारी कियों के साथ कीड़ा करते हुए और निम्नप्रकार की स्तुतिपाठकों की स्तुतियों द्वारा प्रफुल्लित मनवाले मैंने ग्रीष्म ऋतु संबंधी श्रीम दिनों की, जो कि समस्त लोगों के नेत्रों में निद्रा उत्पन्न करनेवाले थे, मध्याह्न-वेलाएँ, जो कि समस्त लोगों के नेत्रों में उसप्रकार निद्रा उत्पन्न करती थी जिसप्रकार मद्य-समागम (पान) समस्त लोगों के नेत्रों में निद्रा उत्पन्न करते हैं, व्यतीत की। कैसी है प्रोष्म ऋतु ? जिसमें निरन्तर जल से जडीभूत न जल से भीगे हुए वस्त्र संचालन से कुछ कुछ बहनेवाली मन्द मन्द वायु का क्रीडा विनोद वर्तमान है। जिसमें गाढ़ S 'समाचार' क० | १. दीपकालंकार 1 २. माति अलंकार 1 ३. जाति अलंकार 2 ४. रूपकालंकार ५. समुच्चयालंकार | ६. समुच्चयालंकार ।