Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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सुवीय आधासः
२२६ मन्ना कार्यानुगो येको कार्य स्वामिहिसानुगम् । स एव मन्त्रिणो राशां न च ये गालफुल्लनाः ॥ ७० ॥
नुपस्तदर्थमुद्यच्छेदमस्या दीर्घसूत्रिताम् । मन्त्रक्रियान्यथा तस्य । निरथा कृपणेविच ॥ १ ॥ इने छोड़कर विना प्रकरण का विषय कहना यह तो अपने मुख को खुजली मिटाना मात्र है–निरर्थक है, क्योंकि उससे विजिगीषु राजा का कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ॥६६॥ जिनका मन्त्र ( राजनैतिक निश्चित विचार) राजा की कार्य-सिद्धि-प्रयोजन सिद्धि-करनेवाला है एवं जो ऐसे कर्तव्य का अनुष्ठान करते है, जिससे राजा का कल्याण होता है, वे ही राजाओं के मन्त्री हैं और जो केवल वाग्जाल (वचनसमूह) बोलनेवाले हैं, के मंत्री नहीं कहे जासकते । भावार्थ प्रस्तुत श्लोक में 'उपायसर्वज्ञ' नामके नवीन मंत्री ने यशोधर महाराज के प्रति निम्न प्रकार नीतिशास्त्र में कहा हुश्रा मन्त्रियों का लक्षण प कर्तव्य निर्देश किया है।( प्रस्तुत नीतिकार आचार्य श्री ने कहा है कि 'जो बिना प्रारम्भ किये हुए कार्य का प्रारम्भ करें, प्रारम्भ किये हुए कार्यों को पूरा करें और पूर्ण किये हुए कार्य में विशेषता लावें तथा अपने अधिकार का उचित स्थान में प्रभाव दिखाये, उन्ष्ट्र मन्त्री कहते हैं। शुक्र विज्ञान ने भी कहा है कि जो कुशल पुरुष राजा के समस्त कार्यों में विशेषता लाते हुए अपने अधिकार का प्रभाष दिखाने में प्रवीण हो, वे राजमंत्री होने के योग्य है, जिनमें उक्त कार्य सम्पन्न करने की योग्यता नहीं है, वे मंत्री पद के योग्य नहीं ॥शा
इसीप्रकार मन्त्रियों के कर्तव्य के विषय में कहा है कि 'मन्त्रियों को राजा के लिए दुःख देना उत्तम है। अर्थात-यदि मंत्री भविष्य में हितकारक किन्तु तत्काल अप्रिय लगनेवाले ऐसे कठोर वचन बोलकर राजा को उस समय दुःखी करता है तो उत्तम है, परन्तु अकर्तव्य का उपदेश देकर राजा का नाश का बच्चा नहीं। अर्थात्-तत्काल प्रिय लानेवाले किन्तु भविष्य में हानिकारक वचन बोलकर अकार्य-नौति-विरुद्ध असत्कार्य का उपदेश देकर उसका नाश करना अच्छा नहीं। नारद विद्वान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है'७०हे राजन् ! राजा को काल चिलम्ब न करके (शीघ्र ही ) योग्य मन्त्रियों के साथ निश्रित किये हुए मन्त्र (राजनैतिक विचार) को कार्यरूप में परिणत करने के लिए उत्साह करना चाहिए । भन्यथा (काल-विलम्ब होजाने पर) राजा की मन्त्रक्रिया ( राजनैतिक विचार ) उसप्रकार निरर्थक होती है जिसप्रकार कृपणों ( कंजूसों ) की मन्त्रक्रिया ( वान देने का विचार ) निरर्थक होती है। अर्थात्-- कंजूस सोचते हैं कि हम इतना धन दान करेंगे परन्तु बाद में नहीं करते, अतः जिस प्रकार कंजूसों द्वारा की हुई मन्त्रकिया ( दान-विचार) कार्यरूप में परिणत न होने के कारण निरर्थक होती है उसीप्रकार
+ 'निरा सपणेष्टिव ह। A-'यया क्षपणः राजमन्त्रवातों करोति परन्तु संग्रामं न करोति तेन निरर्थ __ मन्त्रक्रिया तस्य' इति टिप्पणी ।
१. रूपकालद्वार । २. तथा च सोमदेवसूरि:-- तारम्भमारम्घस्याप्यनुष्ठानमनुछिसविशेष विनियोगसम्पदं च ये कुयुस्ते मन्त्रिणः । ३. तपा व शुक्रा--दर्शयन्ति विषं ये सर्वकर्मसु भूपतेः । खाधिकारप्रभावं च मैत्रिणस्तेऽन्यथा परे ॥१॥
___ मोतिवाक्यामृत ( मन्त्रीसमुहश भाषाटीका-समेत ) पृ. १६३ से संकलित ४. सथा च सोमदेवसरि।-परं स्वामिनो वुःख न पुनरकार्योपदेशेन समिनाशः । ५. तथा च भारद!--वर पीकाकर वाक्यं परिणाममुस्तावह । मंत्रिणा भूमिपालस्य न मृष्टं यद्भयानकम् ।।१।। ६. जाति अलंकार नीतिवाक्यामृत ( भाषाटीका-समेत ) पू. १५२-१५३ से संकलित-सम्पादक