Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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हनीय भाषामः पीसनामार्गमा अगिया : मुअठरा प्रविधिकस वपन्वे मरुमरीचिका १४४॥ कार्ये स्वस्यामिमते सचिवः सिद्धि करोति इटवृस्या । नृपतिर बहुसचिव के वपमति मापसेग्न्यस्य ॥१४॥ कापा तन गरे समस्तपरिवारखीविताहाः। संभाति पस्य निको सचिवलो दुर्जनाचा ॥१४॥ अभिमानमहीधरस्थ--- अनवासधनोऽपि जन: सचिने भवति चाटुतापानम् । मावलिम व्याय महिमा किमिशेजसामन्त्र ॥१४॥ आिस्माय वृत्तं वृत्तायनानि जगसि पुण्यानि । पुण्यायला सक्षमीयदि विद्वान् दैन्पयाम्पिमिति ॥१४॥ यपि विधे न सुधिधिः काम्येऽर्थे याज्यसे तथापीदम् । कुरु भरवां माकार्षीः बनानां दुर्शनैः सङ्गम् ॥१४॥
ऐसे मन्त्रियों द्वारा, जो वास में विशेष अनुराग उत्पन करनेवाले होते है, अर्थात्-जो राजा-आरि के प्रति ऊपरी (कृत्रिम-अनावटी) प्रेम प्रकट करते हैं और भीतर से जिनकी निष्फल (निरर्थक) कार्य करने में विशेष चतुराई होती है एवं जो मृगतृष्णा (वालुका-पुञ्ज पर सूर्यकिरणों का पड़ना जिसकी चकचकाहट से हिरणों को उसमें जलज्ञान होता है ) के समान है, मूर्ख मानवरूपी हिरण प्रतिदिन उसप्रकार वशित किए ( ठग) जाते है जिसप्रकार ऐसी मृगतृष्या द्वारा, जो बाहर से प्रचुर जलराशि समीप में दिखादी है परन्तु मध्य में जल-विन्दु मात्र से शून्य होती है, हिरण प्रतिदिन ठगे जाते हैं-धोखे में डाले जाते हैं। ॥ १४४॥
___ मन्त्री अपना अभिलषित ( इच्छित ) प्रयोजन बलात्कार से सिद्ध (पूर्ण) कर लेता है और दूसरों के कार्य में निम्नप्रकार कहता है कि इस राजा के पास बहुत से मन्त्री है, इसलिए इसके यहाँ हम क्या है ? अर्थात्-हमारी कोई गणना नहीं, अतः हमारे द्वारा आपका कोई कार्य सिद्ध नहीं होसकता ॥१४॥ जिस राजा के समीप दुष्ट वर्ताव करनेवाला और समस्त परिवार की जीविका भक्षण करनेवाला मंत्री संचार करता है, उस राजा से प्रयोजन-सिद्धि की क्या आशा ( इच्छा) की जासकती है ? अपितु कोई आशा नहीं की जासकती। अर्थात्-ऐसे दुष्ट मंत्रीवाले राजा से प्रजा-आदि को अपने कल्याण की कामना नहीं करनी चाहिए ॥१४॥
हे राजन् ! अब आप 'अभिमानमहीधर नामके महाकवि को निम्न प्रकार पचरचना प्रवण कीजिए-लोक में निर्धन ( दरिद्र) पुरुष भी धनालय पुरुष की मिथ्या स्तुति करनेवाला होता है। हे माता लामी ! यह तेरा ही प्रभाष है, इस संसार में और क्या कहा जा ? ॥१४ा सदाचार-प्राप्ति स्वाधीन होती है। अर्थात् मानसिक विशुद्धि से सदाचार प्राप्त होता है और संसार ये पुण्यफर्म सदाचार के मधीम है। अर्थात्-सदाचारलप नैतिक प्रवृत्ति से ही पुण्य कमों का बन्ध होता है एवं धनादि लक्ष्मी पुण्य कर्मों के अधीन है। अर्थात्-पुण्य कमों से ही धनावि लक्ष्मी प्राप्त होती है। इसलिए है पिन् ! यदि तुम सबी विर्ता रखते हो तो याचना करनेवाले क्यों होते हो। अपितु नहीं होना चाहिए। निष्कर्ष-धनादि की प्राप्ति-हेतु निरन्तर पुण्य कर्म करने में प्रयत्नशील होना चाहिए ।।१४।। हे विधि (क)! यद्यपि तुम पाये हुए पदार्य में प्रमुख प्रवृद्धि करनेवाले नहीं हो। अर्थात-मनचाही वस्तु स्न में वस्पर नहीं हो। समापि हम तुम से केवल नियकार एक वस्तु की याचना करते हैं कि चाहे हमारे प्राण प्रहण कर यो परम्दुसम्मान पुरखों कब बुद्ध पुरुषों के साथ संगम मत करो। ।।१४।।
1 'आस्मायत्तं पुण्यं पुष्पावत्तानि जगति भाग्यानि । मायावता समादि धिान्दैन्यवान्विमिति ॥ १.।
१.उपमालकार। २.आक्षेपासर।.आसेपासधार प्रस्तत शामकारका नाम। ४. आक्षेपालद्वार । _५. जाति-महार।. प्रीवस्वरमाद्वार।
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