Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 334
________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मालियानोहगामिन, आनाभिदेशोतम्भितासिधेनुकम् , अहीश्वरानुचन्ह मध्यमेखलं मन्धानकायलमिय, आवझणोक्षिप्तनिविडनिवसन सकौपीन खानसन्दमित्र, अनेकाजामसंभावनाप्रीयाननम् , अात्मस्तवाचदशेमरमागधोकणितवदनम्, सिर्जनसरेखालिसिसमिसिलदेवप्रासाद च, हाई विहिसविविधायुध वर्तनौबिल्व दाक्षिणात्यं बलम् पाडांमुररिमसंपर्कज्यसत्कुन्तापमपालम् । स्वरप्रतापानलल्यास विधानमिवाम्बरम् ॥१४५|| इतरण पर्यम्तसविसकुन्तातयामुहिमितमस्तस्मशम्, अतिप्रलम्बनवणवादोलायमानस्फारसवर्णकर्णिका किरणोटिकमनीयमुमालतया पोहस्पतीपरिकल्पितपलकणिकारकानममिव, समुस्कर्षितसकमिछुक!! जलाप्रमागरोमहोमशम् , माहादःप्रमार्जितदारप्रकाशपसरवहनता प्रदर्शितस्वकोपयशःप्रसूतिश्शेत्रमिय, अमङ्गमहपरिषेषयन्तक्षलक्षपितभुषशिखरम्, अनवरतरसपारसरागरक्तशिसिशरीरता! अक्जिटककर पकालिन्दीकोलकुलमित्र, मारवहतिरस्त्रप्रभाविस्तार सो के समान चेष्ठाशाली लोहमय वलयों (कड़ों) से उन्नत था, इसलिए वह सांपो के बों से बेष्टित शाखापाले भद्रमिय:-चन्दनवृक्ष के वन सरीखा शोभायमान होरहा था। जिसने नाभिदेशपर्यन्त छुरी पाँध रक्सी थी, इसलिए जो शेषनाग से बंधी हुई कटिनी ( पर्वत के मध्य का उतार ) वाले सुमेरु पर्वत के समान शोभायमान होरहा था। जात्रों अथवा घुटनों तक फैलाए हुए रदषलवाला वह लगोटी पहिने हुए सम्पासियों के समूह-सरीखा मालूम पड़ता था। नानाप्रकार की स्तुतिपाठकों की स्तुतियों के श्रवण करने में जिसका मुख ऊँची गर्दनशाली था। जिसने अपना मुख ऐसे स्तुतिपाठकों के [देखने के लिए ] ऊँचा उठाया है, जो कि अपने द्वारा की हुई [ राजा-अदि की ] स्तुति से उत्कट हैं एवं जिसका समस्त शरीररूपी मन्दिर उन्नत नखपक्तियों से चित्रित ( फोटों से ज्याप्त ) है। इसीप्रकार जिसने नाना प्रकार के शलों के संचालन करने की असहाय योग्यता प्राप्त की है। जिसके भालों के पर्यन्तभाग का मण्डल सूर्य-किरणों के स्पर्श से अत्यन्त प्रदीप्त होरहा था, जिसके फलस्वरूप वह ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-आकाश को आपकी प्रसाररूपी अग्नि से न्यान ही कर रहा है ॥२४॥ हे राजम् ! एक पार्श्वभाग पर ऐसा मिल देश का सैन्य ( फौज ) देखिए, शिर के पर्यन्तभाग में केंची से काटे हुए केशों के कारण जिसके मस्तक के मध्यवर्ती केश आधी मुष्टि से नापे गए थे। जिसका मुखमण्डल अत्यन्त विस्तृत कानों के देशपर झूलते हुए प्रचुर कर्णाभूषण ( सोने की बाली ) की किरणों के अप्रभागों से मनोहर होने के कारण गालों की स्थलियों पर रखे हुए प्रफुल्लित कर्णिकार-( वनचम्पा-वृक्ष विशेष) पुष्पों के वन सरीखा शोभायमान होता था। जो ओष्ठपर्यन्तों, दादियों व जनाओं के अप्रभागों पर वर्तमान वृद्धिंगत रोमों से रोमशाली था। प्रत्येक दिन घर्षण किये हुए [ शुभ्र] दाँतों के प्रकाश से ज्याप्त हुए मुख से शोभायमान होने के फलस्वरूप जिसने अपने यशरूपी [ बीज की उत्पत्ति के लिए क्षेत्र (खेत ) प्रकट किया है, उसके समान सुशोभित होरहा था। जिसकी भुजाओं के अप्रभाग ऐसे इन्तजनों (वाँदों द्वारा किये हुए चिन्हविशेषों ) से भोगे हुए ( सुशोभित ) होरहे थे, जो कि कामदेवरूपी ग्रह के गोलाकार मण्डल सरीखी गोन थाति के धारक थे। जिसका श्याम शरीर निरन्तर क्षरण होनेवाले हरिदा (इस्वी ) रसकी लालिमा से व्याप्त हुआ उमप्रकार शोभायमान होता था जिसप्रकार कमलों की पराग से मिश्रित हुई यमुना नदी की तरङ्गपक्ति शोभायमान होती है। मोरपक्षों के बच्चों कनखलेखा' क 'वल्गनौचित्यं' का । : जयाप्रमागसमलोमशम्' का । I अयं शुबपाठः क० प्रतितः समुलतः । कर्ज पीयूषपभयोरिति विश्वः । मु. प्रसौ तु 'कज पाठः-सम्पादकःA भवप्रियं चन्दनम्' इति पजिलाकारो जिनदेवः-संस्कृत टीका (पु. ४६१ ) से संकलित-सम्पादक १. उत्प्रेक्षालंकार ।

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