Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 352
________________ यशस्तितक्यम्पूकाव्ये सिाम, माना विलिन । समं लिया गारहितवपुः सूणितशिस + मुखं स्वप्योङ्ग स्वं भुतियुगमिवं पुर्वय गज । उरस्तो निर्गव स्थितमिव कर्मधारय पुरः अल्कोलं वालं विहितसमवस्थापनविधिः । २८५ ॥ पवमुरोविनिर्मातरः प्रोत्कगिता हस्ततया प्रहटका - वाराहीमाकृतिमानीतनिवदेवृत्त, गतिसकुशलोपमिल्मालम्पादिमावहितवित, शबापस्पैन्द्रसेवकौबेरवारुणकौमारयाम्पसौम्यवायच्याग्नेयवैष्णवाधिभगसूर्यदेवतेषु परिषु अन्यतमसंवन्धिलमणोपेत. प्रशिक्षण जसामेक्समायासमेत, अष्टादशक्रियाधार, सत्कर्मनिष्णाततया विवित, चतुरस्त्रीकृत शान्तदान्तयोधविनीतसर्वशादिनामप्रकार, महाररूप्रचण्ड, सकलसपनोरःपुरकपाटस्फोटनाशनिदण्ड, परचकप्रमईनकर, गजवन्धराधीशविधुवान्धवधुर, सिन्धुर, हे हे हल, दिव्यसामज, मात्रामा ति तिष्ठ । मिट्टी के पलास्तर से किये हुए अवतारवाला ही है एवं जो ऐसा प्रतीत होता है-मानों-पृथिवी के मध्यभाग से ही प्रकट हुआ है। इसीप्रकार लोगों के मानसिक अभिप्रायों ( उत्प्रेशाओं-कल्पनाओं) को प्रकट करनेवाले हे गजेन्द्र ! हे हे मित्र ! हे अलौकिक गजेन्द्र ! तुम चिरकाल तक जीवित रहो। हे गजेन्द्र ! तुम अपने शारीरिक अङ्गों ( पाप-आदि ) से सम (ऊँचे-नीचे रहित ) पूर्वक उठकर निश्चल शरीरशाली च उन्नत मस्तकबाले होते हुए मुस्त्र में प्रविष्ट करके ( आधी सैंड मुख में घुसेहकर ) प्रत्यक्ष-प्रतीत कर्णयुगल संचालित करो एवं वराहाकार-जैसी की हुई स्थापना-विधिवाले तुम अपनी सैंड, जो कि हृदय से निकलकर ठी हुई-सी प्रतीत होरही है, सामने अप्रभूमि पर स्थापित करे और पूँछ को ऊपर हिलनेवाली करो ( हिलाओ । पा२८। इसीप्रकार अनास्थल से निकली हुई व अग्रभाग में वक्र ( के कारण तथा संचालित कर्णयालका अपनी शारीरिक प्रवृत्ति को जंगली शूकर सी आकृति-धारक, गजशास्त्र में विचक्षण (विद्वान ) पायों द्वारा शिक्षा दिये जानेवाले दम्य ( काबू में लाना-वश में करना )-आदि कर्तव्यों से सावधान चित्तथाले. ब्रह्मा. इन्द्र. रुद्र, कुवेर. वरूण, कुमार, यम, सोम, वायु, अग्नि, विष्णु, अश्विन, भग और सूर्य न देवताओंवाले होने के कारण प्राज्ञापत्य, ऐन्द्र, रौद्र, कौवेर, वारुण, कौमार, याम्य, सौम्य, पायथ्य, भाग्नेय व वैष्णव-आदि नामवाले हाथियों में से किसी एक हाथी के लक्षणों से अलस, पृथिवी, जर व अनि में से किसी एक पदार्थ की दाप्ति से संयुक्त, अठारह प्रकार की क्रियाओं (तीनप्रकार का दाम्य, सात प्रकार का साना और आठ प्रकार का उपवाह्यकर्मरूप व्यापारों) के आधार, उन-उन कर्तव्यों में प्रवीन होने के कारण विस्यान, चतुरस्त्रीकृता (परिडत ), क्षमावान्, जितेन्द्रिय, योधा ( सहस्त्रभट, लज्ञभट च कोटीभट शूरवीरों का विध्वंसक ), शिक्षाग्राहक, व सर्वज्ञ-आदि भिन्न २ नामोवाले, विशेष शक्तिशाली होने के कारण अत्यन्त कोधी, समस्त शहृदयों को और नगर के [विशाल ] दरवाजों के किवाड़ों को चूर-चूर करने के लिए श्मपात के समान, शत्रु-सेनाओं को घूर-चूर करनेवाले और ऐसे राजाओं के, जिनके हाथो ही बन्धु ( उपकारक ) , संकट पड़ने के अवसर पर उपकारक बन्धु का भार वाहक ऐसे हे गजेन्द्र ! हे हे मित्र ! हे अलौकिक गजेन्द्र ! तुम दीर्घकाल पर्यन्त जीवित रहो। + 'मुखं मूड त्वं' ६० । :. उसना । उसे क्षालङ्कार । २. उपमालंकार । * इच-दाम्य विविधमिच्दन्ति सांना सप्तधा स्मृतम् । स्यादथ्योपधाव घेत्येवमष्टादश कियाः ॥१॥ + उ च-'चतुरलीकृतच पण्डितः। 1 उर्फ च- बोधस्व सहस्रभट-लक्षभट-कोटीभट विध्वंसकः' सं० टी० (पृ. ४८८ ) से संकलित-सम्पादक

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