Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
कदाचित् - अधिगतमनिद्रः सुप्रसनेन्द्रियामा लघुजठरत्तिर्भुक्तपति दधानः । श्रमभर परिस्विनः स्नेहसंमदिताङ्गः समगृहपतिनाथ ३२२॥
विद्वान ने भी इसीप्रकार अष्टायुध हाथियों की प्रशंसा की है। वास्तव में 'राजाओं की बिजयश्री के प्रधान कारण हाथी ही होते हैं, क्योंकि वह युद्धभूमि में शत्रुकृत हजारों प्रहारों से साडित किये जाने पर भी व्यथित न होता हुआ अकेला ही हजारों सैनिकों से युद्ध करता है" । शुक्र विद्वान के उद्धरण से भी उक्त यात प्रतीत होती है। इस लिए प्रकरण में राजाओं की चतुरङ्ग सेना हाथीरूप प्रधान अङ्ग के बिना मस्तकशून्य मानी गई है || ३२१||
अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज! किसी अवसर पर मैंने ऐसा भोजन किया, जिसमें ऐसे 'सज्जन' नाम के वैद्य से, जिसका दूसरा नाम 'वैद्यविद्याविलास' भी है, जो कि मधुर, अम्ल ( खट्टा ), कटु, तिक्त, कपाय ( कसैला ) और लवण खारा इन छह रसां के शुद्ध व संसर्ग के भद से उत्पन्न होनेवाले तिरेसठ प्रकार के व्यञ्जनों ( भोज्य पदार्थों) का उपदेश दरहा था, उत्पन्न हुए निम्न प्रकार सुभाषित वचनामृतों द्वारा चर्वण-विधान द्विगुणित ( दुगुना ) किया गया था।
यशोधर महाराज के प्रति उक्त बंध द्वारा कई हुए सुभाषितवचनामृत - ऐसे राजा को स्नानार्थ स्नान गृह में जाना चाहिये, सुखपूर्वक निद्रा लेने के फलस्वरूप जिसकी समस्त इन्द्रियाँ स्पर्शन, रसना, घाण, व व श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ) व मन प्रसन्न है, जिसकी उदर-परिस्थिति ( दशा लघु होगई है। अर्थात् - शौच आदि शारीरिक क्रियाओं से निवृत्त होने के फलस्वरूप जिसका उदर लघु हुआ है और जो भोजन- परिपाक का धारक है एवं जो धनुर्विद्या - आदि व्यायाम कार्यों से चारों ओर से श्रान्त ( थक्ति ) हुआ है तथा जिसके शरीर का सुगन्धित तेल व घृत द्वारा अच्छी तरह महादेश हो चुका है।
विशेषार्थ - प्रकरण में 'सज्जन' नाम का वंद्य यशोधर महाराज के प्रति स्वास्थ्योपयोगी कर्त्तव्यों में से यथेष्ट निद्रा, उसका परिणाम, शौचादि शारीरिक क्रियाओं से निवृत्त होना और व्यायाम करना तथा यथाविधि स्नान करने का निर्देश करता है । आयुर्वेदवेसाओं" ने कहा है कि 'जिस विधि ( प्रकृति व ऋतु के अनुकूल चाहार-विहारादि) द्वारा मनुष्य स्वस्थ ( निरोगी ) रहे, उसीप्रकार की विधि वैद्य को करानी चाहिए, क्योंकि स्वास्थ्य सदा प्रिय है' । नीतिकार प्रस्तुत आचार्य * श्री ने भी कहा है कि 'प्रकृति के अनुकूल यथेष्ट निद्रा लेने से खाया हुआ भोजन पच जाता है और समस्त इन्द्रियाँ प्रसन्न होजाती है । इसीप्रकार मल-मूत्रादि के विसर्जन के विषय में बायुर्वेदवेत्ता श्रीभावमिश्र ने कहा है कि 'प्रातः काल मल-मूत्रादि का विसर्जन करने 1. तथा म्ब सोमदेवसूरिः - इस्तिप्रधानो विजयो राज्ञां यदेकोऽपि हस्ती सहलं योधयति न सीदति प्रहार सहस्रेणापि ॥ १ ॥
१.
राधा च शुकः– सहस्रं योधयस्येको यतो याति न च व्यर्था । प्रहारैर्बहुभिर्लम्मैस्तस्मादतिमुखी जयः ॥१॥ नीतिवाक्यामृत से संकलित - सम्पादक ३. उलेषालंकार ।
४. तथा चोकं ( भावप्रकाशे ) मानवो येन विधिना स्वस्थ स्तिष्ठति सर्वदा । तमेव कारयेद्र यो यतः स्वास्थ्यं सदेप्सितम् ॥१॥ ५० तथा सोमदेवसूरिः - यथा सात्म्यं स्वपाद् भुक्कामपाको भवति प्रसीदति चेन्द्रियाणि ।
नीतिवाक्यामृत (दिवसानुष्ठानमुद्देश) पृ० ३२६ से संगृहीत--सम्पादक ६. तथा च भावमिश्रः - आयुष्यमुषसि प्रोतं मलादीनां विसर्जनम् । तदन्त्रकूजनाध्मानोदरगौरथवारणम् ॥ १ ॥ न येगितोऽन्य कार्य: स्थान बेगानीरयेद्बलात् । कामशोकभयक्रोधान्मनोवेगान्विधारयेत् ॥१॥ भावप्रकाश पृ० ७७-७८ से संकलित - सम्पादक