Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 358
________________ २३४ यशस्विलकचम्पूकान्ये परिणा बमधुर्मुक्त: पुर: पुरः स्थूलबिन्दुसन्तानः । रचयति दिगङ्गमान मुक्ताफलभुषणानीय ॥ २९३ ॥ उत्तम्भोसकर्णतालथुगलः प्रत्यस्तपांसुकिया प्रत्याविष्टकरणुकेलिरमणः प्रस्थापिताम्भोघटः । * मातुः प्रार्धनका चिराय विस्तानिन्गृहीत्वा को तिष्टस्यन्यकरीन्द्रसंचरमनाः कोपस्या कोलितः ॥ २९४ ॥ मम मदमदिरामाः सौरभल्व सैन्यं व्युपरतमदलेखासश्मि जातं गवामाम् । इति मनसि विचिन्त्यदैव हस्ती तनोति त्वमित्र सुस्तकामाय धनुप्रियाणाम् ॥ २९॥ रणसिविलोपस्तव मम च समः परभमदशमनात् । इति भावयतीव गजस्त्याजनमिषतो बगनाथ ॥ २९६ ॥ पत्तेऽम्पस्य गजस्य गण्यमलतामेव प्रभदोनमः शोभा स्वस्य गजस्य दानविभवः पुष्णास्यवागोचराम् । किं चारग्धमदेपि पत्र करिणा सम्पानि संतवसे घण्टाकृतिवजितामि विमदान्यस्तप्रचाराणि च ॥ २१ ॥ अन्त में कोई अपूर्व शोभा धारण करते हो ॥२९२।। हे राजन् ! इस्ती द्वारा शुण्डादण्ड से बाहिर क्षेपण किया गया जलविन्दु-समुह स्थूल जलविन्दुसमूह हुश्रा अनदेश पर स्थित होकर दिशारूपी त्रियों के मोतियों के आभूपों की रचना करता हुआ सरीखा शोभायमान होरहा है ॥२९३।। हे राजम् ! ऐसा यह गजेन्, जिसने अपने दोनों कानरूपी ताड़पत्र निश्चल किये है, जिसने अपने ऊपर धूलि-क्षेपण-क्रिया बोड़ दी है और जिसने हथिनी के साथ किया विनोद का निराकरण करते हुए जल से भरा हुमा घट दे दिया है. एवं जिसका चित्त दूसरे हाथी के प्रवेश में लगा हुश्रा है, चिरकाल तक धारण किये हुए गमों को महावत की प्रार्थना से सैंड से ग्रहए करके स्थित है ( खड़े होकर खा रहा है, इसलिए वह ऐसा मालूम पड़ता हे-मानों-क्रोध की मानासक पीड़ा से ही कीलित हुश्रा हे ॥२६४|यह हाथियों की सेना । झुण्ड) मेरे मन ( दानजल ) रूपा मद्य की सुगान्ध से ही अपनी मद-लेखा । दानजल-पंक्ति) मंशोभा को नष्ट करनेवाली हुई है' इसप्रकार चित्त में विचारकर हे राजन् ! यह हाथी उसप्रकार इथिनियों की रतिविलासचालीन मिथ्या स्तुतियाँ (चाटुकार) विस्तारित कर रहा है जिसप्रकार माप अपनी प्रियाओं की रविविलास-कालीन मिध्यास्तुतियाँ विस्तारित करते हैं ।२६।। हे पृथिवीपति ! आपका यह गजेन्द्र त्यासन (अपना मस्तक ऊँचा नीचा करना अथवा मस्तकपर पुलि-क्षेपण) के बहाने से इसप्रकार कहता हुआ मालूम पड़ता है मानों-दराजन् ! मैंने शत्रुभूत हाधियों म और आपने शत्रुभों के हाथियों का मद चूर-चूर कर दिया है, इसलिए संग्राम-क्रीड़ा संबंधी सुख का भभाव मुम में और आप में एक सराखा है। भर्धात्-मरा युद्धक्रानासंबंधी सुख उसप्रकार ना होगया है जिसप्रकार भापा युद्ध-क्रीडा संबंधी सुख नष्ट होगया है ॥२६६।। हे राजन् ! दूसरे हाथी का मनोरम ( दानजल की उत्पत्ति ) केवल उसकी कपोलस्थलियों पर मलिनता धारण करती हैं परन्तु आपके इस हाथी की मदलक्ष्मी (गण्डस्थलों से प्रवाहित होनेवाले दानजल की शोभा) उसकी वचनातीत शोभा को पुष्ट कर दी है एवं आपके हाथी में विशेषता यह है कि जब आपका हाथी मद का आरम्म करता है सब शत्रहाथियों के सैन्य घण्टाओं की टवार-ध्वनियों से रहित, मद-हीन भौर युद्ध-प्रवेश छोपनेवाले होजाते असन्तुः प्रार्थनया चिराय विहितानिशून्' कः । * यानुः' ख. २० मु. प्रतिवत्' | Aयाता स्ते निषादिनि' रि.. 'पौलितः' ३० । 'घने तस्य । १. उपमालंकार । २ कियोषमालंकार । ३. उत्न झालंकार । ४. उपमालंकार। ५. उत्प्रेक्षालंकार । ६. बसमय र समुचयालंकार ।

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