Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 356
________________ ३३२ वशस्तिलकचम्पकान्ये म्यूढोरस्कः प्रभुतान्तरमगिरतनुः सुपतिष्ब न्ध: xवाचारोऽम्बर्धवेदी सुरभिमुस्वमरुतीर्घहस्तः सुकोशः । अातामोटः मुजातः पतिरमुदितः रशीपोद्मश्रीः शान्तस्तस्कान्तप्त-मी: शमितवक्षिपदः शोभते भूप भद्रः॥२८॥ योनिस्पयि वीसभीरवनतः पधास्यसादात्युन: नितिने पुरसः समुकिरतशिरा कार्येषु भारक्षमः | सोऽस्यल्पश्रम एच मपरयुतो गम्भीरवेदी पृथुर्मन्दभानुकृतिबालीरितवपुः स्यारानपर्वा नृपः ॥ १८९॥ ये वीर स्वयि बहरीकमनसः सेवामु दर्मेधसो हुस्वोरोमणयः कोष सनब स्लेक्षण शमन्त्रः। सैना धान्य तनु सविप्रभृतिभिः शोकाभिर्भरः पाश्चरण वंशकैगसम प्राय: समापते ॥ २९ ॥ गण्डस्थल की वृद्धि. गण्डस्थल के मध्यभाग का प्रक्षालन, विदारण, प्रबर्धन. ( कटक दिखाना ), विलेपन, चन्दना देवान, प्रत करना. हासन, विनिवर्तन ( पश्चात्करण) एवं प्रभेदकरण ये हाथियों के गण्डस्थलमादि से प्रवाहित होनेवाले दानज्ञज्ञ की निवृत्ति के उपचार ( औषधियाँ ) हैं। हे राजन् ! ऐसा भद्रजाति का हाधी शोभायमान हो रहा है, विस्तीर्ण हृदयशाली जिसके मस्तक में विशिष्ट ( बहुमूल्य या सर्वोत्तम ) मोतियों की श्रेणी वर्तमान है । जो स्थूल शरीरशाली एवं निश्चल शारीरिक बन्धवाला है। इसीप्रकार जो प्रशस्त आचारवान्, सत्य अर्थ का ज्ञापक, मुख की सुगन्धित श्वास वायु से युक्त. लम्बी ( पृथ्वी को स्पर्श करने वाली ) मूंड से सुशोभित, शोभन ( आम्रपल्लव-सरीखे । अखकोशबाला. रक्त ओष्टशाली सुजात ( स्यैषाकृति, मर्दल या कुलान ), अपने चिंधारने की प्रतिध्वनि सुनकर हर्षित होनेवाला, मस्तक का मनोज्ञ उद्गमश्रा युक्त, क्षमावान या समर्थ, मनोज्ञ लक्ष्मी । शोभा) से ज्यान एवं जिसके चरणों में से चालयों ( त्वचा-संकोच या भूरियाँ) नष्ट होचुकी हैं। ||२|| बह राजा सान्द्रपा (विशेष महोत्सववाला ) होता है, जो कि तुझ मन्दजाति के हाथी में अच्छिद्र (छिन्द्रावेषगराहत पूर्ण विश्वासा) है। जा वीतभी इ.। अर्थात-जा तुझस भय नहीं करता। पश्चात् जो तेरे प्रसाद से इल अवनत ( नम्रीभूत ) है। जो अग्रभाग में समुच्छतशिर (उन्नत मस्तक्याला) है। जो तेरे बर्य के अवसर पर कार्यासाद्ध करता है। इसाप्रकार जो आस-अल्प-श्रम है। अर्थात्-थोड़े कष्ट से भी राज्य का भाता है। जो मण्डलयुत ( राष्ट्र-संयुक्त) है। जो गम्भीरवेदी ( तरी गम्भीरता का ज्ञापकप्रकट करनेवाला) है। तथा जो पृथु ( विस्तृत राज्यशाली) है। और जो बली-ईरित-वधु (बलवानों झारा प्रारत किये हुए शरीरवाला ) ई एव जा उसप्रकार उक्त गुणों से विभूषित है जिसप्रकार मन्दजाति क हाधा उक्त गुग से विभूषित हाता है। अथात्--जिसप्रकार मन्दुजातवाला हाथी आँच्छद्र ( घने शारीरिक बन्धवाला ), वीतभी ( राजा क शत्रुओं से भयभीत न होनेवाला), राजा के प्रसाद से पश्चात् ( आगे के शरीर में । अवनत । नम्र भूत ), कुछ अग्रभाग में समुच्छ्रिताशरशाली (उन्नत मस्तक से मलत), कार्य-भारतम-संग्राम आदि क अवसर पर भार उठाने में समर्थ, भार-पहन करता दुभा भी बति-अल्प-श्रम ( थोड़े परिश्रम का अनुभव करनेवाला ), मण्डल-युत ( हाथियों के झुण्ड से सहित ), गम्भारवेदी (त्वचा-भेदन हानेपर व रक्त प्रवाहित हानेपर एवं माँस काटे जानेपर भी देखना-बुद्धि (अनुभव) को प्राप्त न करनेवाला), पृथु ( विस्तीर्ण पृष्ठ वेशवाला) और बली-ईरित-चपु-मर्थास-चमड़े की सिकुड़नों या झुरियों से ब्यान शरीरशाली एवं सान्द्रपा-अर्थात्-घने सन्धि-प्रदेशवाला हेता है" ॥२६॥ हे पराक्रमी व पृथिवीपति राजन् ! जो शत्रुलोग आपसे बहु-अलीक-मनवाले (कुटिल हृदय माले), आपकी सेवा से दुर्मेधस (विमुख), हस्व-उरोमणि (अल्प मोतियों की मालामों x 'स्वाचारोऽपूर्ववेदी: क.। ' 'तमुच्छविप्रतिभिः' का । १. जाति-बलबार । २. ध व उपमालंकार ।

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