Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मूल महरूपविमयं पर कुलीनं माल्यं महान्समधर्म पुनरुत्तमं च ।
तुष्टः करोति कुपितश्च विपर्ययेण I मन्त्रीति देव विषयेषु महाप्रवादः ॥ २४१ ॥ समविविस्तरेण । देव, समस्तस्याप्यस्य ji भाषितस्मेदं कैपर्यम् –
या कार्याधिनि भूपतावसमधीः कार्याय असे धुरं यश्चाधिमि संनयोचितमतिविस्तामणिजायते ।
भक्ती भर्तरि मन्त्रिणामिदमहो दिव्यं इयं कीर्तितं न क्षोणीश महीयसां निरसनं राज्यस्य वा ध्वसमम् ॥२४॥ स्था च भूतिः-दुर्योधनः समोऽपि वुमंत्री प्रलयं गतः । राज्यमेकशरोग्याप सम्मन्त्री नवगुप्तकः ॥ २४३ ॥
x पुण्योदयः क्षितिपतेनियत सदैव काम महोत्सवसमागमन सहस्सु । मोझगमश्च परमो मनु सेवकाना दुष्टसनिकानितिर्गव ।। ३४
हे देव ! अवन्ति देश में इसप्रकार की विशेष किंवदन्ती हो रही है कि 'आपका यह मन्त्री सन्तुष्ट हुआ मूर्ख पुरुष को बृहस्पति, वृषल (चाण्डाल के संसर्ग-वश ब्राह्मणी से उत्पन्न हुए शूद्र पुरुष ) को कुलीन, अहिंसादि व्रतों से भ्रष्ट हुए पुरुष को गुरु और नीच को श्रेष्ठ बना देता है और इसके विपरीत कुपित होने पर पूर्वोक से उल्टा कर देता है। अर्थात्-कुपित होने पर वृहस्पति को मूर्ख, कुलीन को शूद्र, गुरु को प्रतभ्रष्ट और श्रेष्ठ को अधम बना देता है। ॥२४१।
विशेष विस्तार से क्या लाभ ? हे राजन् ! समस्त पूर्वोक्त का तात्पर्य यह है---
जो मन्त्री प्रयोजनार्थी राजा में अद्वितीय बुद्धिशाली होता हुआ कार्यभार धारण करता है और जो अपनी बुद्धि को न्याय में प्रेरित करता हुआ (अन्याय से धन न देकर न्यायोचित्त उपायों से प्राप्त किये हुए धन को देता हुमा) धन चाहनेवाले राजा के लिए चिन्तामणि है। अर्थात्-मनोवाञ्छित वस्तु देता है । इसप्रकार मान्त्रयों की राजा में भक्ति होने पर निन्नप्रकार दो दिव्य ( उत्तम लाभ) कहे गये हैं।१. विजनों का तिरस्कार नहीं होता और राज्य नष्ट नहीं होता'२४२।। शास्त्र में कहा हैदुर्योधन राजा समर्थ होने पर भी (दुःशासन व दुर्धर्षण-आदि सौ भाइयों से सहित होने के कारण शक्तिशाली होने पर भी ) शकुनि नामके दुष्ट मन्त्री से अलंकृत हुआ प्रलय (नाश) को प्राप्त हुआ। अर्थात्-अकेले भीम द्वारा मार दिया गया और चन्द्रगुप्त नामका मौर्यवंशज राजा प्रशस्त मन्त्री से विभूषित हुआ (चाणक्य नाम के राजनात के वेत्सा विद्वाम् मन्त्री से अलङ्कत हुआ) एक वाणशाली होनेपर भी ( अकेला होनेपर भी राज्यश्री को प्राप्त हुआ A२४३।। हे राजन् । जिस समय दुष्ट मन्त्री का पिनास होता है उसी समय निश्चित रीति से राजा का पुण्योदय होता है और उसके कुटुम्बीजनों के लिए विशेष महोत्सव प्राप्त होता है व सेवकों के लिए उत्कट हर्ष प्राप्त होता है। इसमकार राजनीति के प्रकरण में मन्त्री-अधिकार समाप्त हुआ ॥२४४||
Iनक शुरूपाउः. प्रतिसः संकलितः । मु. प्रती तु 'मन्त्रांति देव विषये सुमहान्प्रवाद । ii 'भाषितस्पैदंपर्यम् ३० । x 'पुण्योदयः क्षितिपतनगरं तदैव क० । १. दीपकालंकार । २. रूपकालंकार । ३. जाति-अलंकार । ४. दीपमालंकार ।
A इतिहास बताता है कि १२९ ई. पू. में नन्दवंश का राजा महापयनन्द मगध का सन्नाट पा। नपत्र के राजा अत्याचारी शासक थे, इसलिए उनको प्रजा उनसे अप्रसन्न हो गई और अन्त में विष्णुगम (षामक्य) माम मामा विद्वान की सहायता से इस पंक्षा के अन्तिम राजा को उसके सेनापति चन्द्रगुप्तमौर्य ने ३२५ ई. पूर्व में गहां से सतार दिया भोर स्वयं राजा बन बैठा । 'मेगास्थनीज' नामक यूनानी राजदूतने, ओ कि चन्द्रगुप्त के दरबार में रातापा, चन्द्रगुप्त के साप्सम प्रबन्ध की या प्रशंसा की है । इसने २४ वर्ष पर्यन्त नौति-न्यायपूर्वक राज्यशासन किया ।