Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
मृतीय श्राश्वासः कदाचित् -- येऽभ्यगा दूरास्ते में दूरास्ते भान्ति चाम्गाः । पथिकजने निसर्गात्तरुवनस्याः नितीश ॥२५॥
__इति न्यायादवखरमालभमानस्थ चिरसेवकसमाजस्य जितन्य इव गर्भगिक प्रनिषकामगरमगर? + स्वैर विहारेगु मम गुरुशुकविशालाक्षापरीक्षिस्पराशरभीमभीष्मभारक्षाशादिप्रणीतनीतिशाय श्रवसना निपथमभजन्त । तपाहि । नृपलामी: ग्बालभोग्या न जानु गुगशालिभिर्महापुरु षैः ।
मिक्षानं हि नखवृद्धः फलमपरं पुन्दकपडूतेः ॥२५॥ *ये स्लिश्यन्ते नृपत्तिषु तेयु न जायत जातुनिलल मीः। दृष्टिः पुरोऽभिधापत्ति फलामुपदके नितम्बस्नु ।।१५।। समरमरः सुभटानां सानि कर्णजपस्तु भोग्यानि । करिदशमा हव नृपतेाद्याः कशाय वादातस्थाः ॥२६॥
अथानन्तर-हे मारिदत्त महाराज! किसी समय जब में स्वेच्छाचार की प्रवृत्ति-युक्त स्वच्छन्न विहार कर रहा था तब क्रीड़ा (हास्यादि) मन्त्रियों के ऐसे भण्डवचन मेरे कानों के मार्ग में, जो कि गुरु, शुक, विशालाक्ष, परीक्षित, पराशर, भीम, भीष्म, भारद्वाज-आदि नीतिवेसाओं द्वारा रचे हुग नीतिशास्त्रों के अषण से विभूषित होरहा था, प्राप्त हुए। अर्थात्-मैंने श्रवण किए। कैसे हैं ये क्रीडामन्त्री के भण्ड वधन ? जो कि निम्नलिखित दृष्टान्त से [अति परिचय के कारण अवज्ञा (अनादर) होने के डर से मेरे पास आने का अवसर प्राप्त न करनेवाले पुराने सेवक-समूह के नम्र निवेदनों (प्रार्थनाओं) के समान थे। अर्धान्-जिसप्रकार बहुत दिनों के ऐसे नौकर-समूह की, जो कि अतिपरिचय के कारण अपना अनादर होने के डर से स्वामी के समीप में प्राप्त होने का अवसर प्राप्त नहीं करता, प्रार्थनाओं (नम्र निवेदनो ) में स्वामी का विशेष आदर नहीं होता, उसीप्रकार क्रीड़ा-मन्त्रियों के भण्डषचनों के श्रवण में भी मैंने विशेप
आदर नहीं किया था, क्योंकि मेरा कर्ण-मार्ग उक्त नीतिवेत्ताओं के नीतिशासों के श्रवण से सुसंस्कृत व विभूषित था।
__ जिसप्रकार रास्तागीरों के लिए स्वभावतः समीपवर्ती वृक्ष दूरवर्ती होजाते हैं और दृरवर्ती वृक्ष निकटवर्ती होजाते हैं उसीप्रकार राजाओं को भी स्वभावत: जो समीपवती नौकर होते हैं, वे दृरक्ती हो हो जाते हैं और दूरवर्ती नौकर समीपवर्ती होजाते हैं। ।। २५२ ।।
कीड़ामन्त्रियों के भण्ठयचन-हे राजन! राज्यलक्ष्मी दुर्जनों द्वारा भोगने योग्य होती है, यह कदापि गुणवान महापुरुषों द्वारा भोगने योग्य नहीं होती। यह योग्य ही है। क्योंकि साधुपुरुषों की नख वृद्धि से अपने आसन (पीदा या कंधा) संबंधी खुजली विस्तार के सिवाय दूसरा कोई (कमनीय कामिनी के कुचकलशों का मर्दन-आदि) लोभ नहीं होता १२५३॥ हे राजन् ! राजाओं के निमित्त कष्ट उठानेवालों के लिए कभी भी लक्ष्मी (धनादि विभूति) प्राप्त नहीं होती। उदाहरणार्थ-पुरुषों के नेत्र [कमनीय कामिनी-आदि प्रियवस्तु की ओर दौड़ लगाते है परन्तु उन्हें उसका फल प्राप्त नहीं होता, दौड़ने का फल स्त्री का नितम्ब ( कमर का पिछला उभरा हुआ भाग) भोगता है। भावार्थ-जिसप्रकार कमनीय कामिनी-श्रादि प्रिय वस्तु की ओर शीघ्र गमन करनेवाले नेत्रों को उसका फल ( रतिविलास मुख) प्राप्त नहीं होता उसीप्रकार राजा के हेतु कष्ट उठानेवाले सज्जन पुरुषों को कभी भी लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती किन्तु उनके विपरीत चापलूस व चुगलखोरों के लिए लक्ष्मी प्राप्त होती है। ॥२५४॥ हे राजन् । युद्ध करने की विशेषता शूरवीरों में होती है परन्तु उसके फल (धनादि-लाभ ) चुगलखोरों द्वारा भोगने योग्य होते हैं। राजा के बाह्य ( सुभट-योद्धा) उसे उसप्रकार क्लशित करते हैं जिसप्रकार हाथी के बाह्यदन्त
येऽभ्यर्णास्ते पूरा थे दू। ० । + रविहारेषु अमरगुरुकाव्यविशालाक्ष' का ग पिलश्यन्ति' का । refe: पुरो हि धावति' क.। १. स्टान्तालझार । २. दृष्टान्तालङ्कार। ३. दृष्टान्तालंकार ।