Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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तृतीय भाश्चास:
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मोफसंरम्भेषु बिनजे मनिकपिलकाचरचाकशास्यप्रगीतमाणसंवीणतया विषिणीनां परिषदां वितभिसिवात्मयश:प्रशस्तीरुल्लिन।
मशालारहित पसि पथा शौर्यपरिमहः । तधोपन्यासहीनस्य तथा शास्त्रपरिग्रहः ॥ २७ ॥ स्फुरन्स्पपि मनःसिन्धौ शाबरवान्यनेकशः । वीगुणविही गनि भषयन्ति न सन्मनः ॥ २७८ ॥ विमानां स्फुरितं प्रीत्यै स्त्रीगां लाण्यादिः । अन्तर्भवत् पा मावा कि विद्यारितीन्द्रियः ॥ २७१ ॥ श्रीमान्निधेः प्रसादेन यः सत्य न कृताइ । अरण्य कमानीव नोरस्तिस्य संपदः ॥ २४ ॥ भासंसारं यशः का चतुर्वर्ग तु वेदितुम् । येषु वाञ्छास्ति ते भूपाः कुर्वन्ति कविसंमहम् ॥ २८१ ॥
कदाचिदनाथासप्रवृत्तरधचरगमिषु करित्रिनयभूमिः शन व पदों के लचारणों में गूंधी हुई शुद्ध ( केवल ) व परस्पर में मिली हुई सभी प्रकार की भाषाओं ( संस्कृत, प्राकृत, सूरसनी, मागधा, पैशाची और अपभ्रश-आदि) द्वारा विद्वानों की प्रतिभा ( नवीन नवं.न बुद्धि का चमत्कार ) प्रकट की गई है. विशिष्ट विद्वानों से सुशोभित हुए सार्कक विन्मण्डलों की चिचरूपी भित्तियों पर अपना यश को प्रशस्ति (प्रसिद्ध ) उल्लिखित की (उकारी), क्योंकि मैंने जैन, मीमांसक, सांख्य, वंशोषक अथवा गीतम-दर्शन, चार्वाक ( नास्तक-दर्शन ) और बुद्ध दर्शन इन छहों दर्शनों में मरे हुए प्रमागों में निपुणता प्राप्त की थी।
क्योंकि जिसप्रकार खड़-मादि हथियारों से होन हुए शूर पुरुष की शूरता ( बहादुरी ) निरर्थक है इसीप्रकार व्याख्यान देने की कला से रहित हुए विद्वान घुरुष की अनेक शास्त्रों के अभ्यास से प्राप्त हुई निपुणता भी निरर्थक है Rs5|| विद्वानों के मनरूपा समुद्र में अनेक शास्त्ररूप रत्न प्रकाशमान होते हुए भी यदि व्याख्यान देने की कला से राहत है, तो वे सजनों के चित्त को विभूषित नहीं कर सकते ||२८|| जिसप्रकार त्रियों का बाहरी लावण्य ( सोन्दर्य) कामी पुरुषों को प्रसन्न करता है वसीप्रकार विद्वानों का विद्या का बाहिरी चमत्कार ( वक्तृत्वकला-आदि ) सज्जनों को प्रसन्न करता है। भले ही उन विद्वानों में विद्याओं का भीतरी प्रकाश ( गम्भीर अनुभव ) हो अथवा न भी हो, क्योंकि चक्षुरादि इन्द्रियों के अगोचर सूक्ष्मतत्व के विचारों से क्या लाभ अपि तु कोई लाभ नहीं २७९|| जो धन्मय पुरुष पुण्योदय से प्राप्त हुइ लक्ष्मा से विभूषित हुआ विद्वानों व सजनों का सत्कार नहीं करता, उसकी धनादि सम्पत्तियाँ उसप्रकार निष्फल है जिसप्रकार बन के पुष्प निष्फल होते हैं। ।।२८०।। जिन राजाओं की इच्छा अपनी कीति को संसार पर्यन्त व्याप्त करने की है और धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों के स्वरूप को जानने की है, वे राजा लोग वियों का संग्रह ( स्वीकार ) करते हैं ।।२८।।
अयाचन्दर हे मारिदत्त महाराज ! किसी अवसर पर निम्नप्रकार पाठ पढ़ने में तत्पर हुए तथा स्वयं वाँसयष्टि प्रहण करते हुए मैंने गज-( हस्ती ) शिक्षा भूमियों पर, जहॉपर रथ-चक्रधाराएँ सुखपूर्वक संचलित होरही थीं, हाथियों के लिए निम्न प्रकार शिक्षा दी
+ 'यशस्नु' कः । * 'कुर्वन्नु बुधसं प्रहम्' का। .
१. टान्नालंकार। एकालंकार। ३. उपमा २ आक्षेपालंकार । ४. उपमालंकार । ५. जातिनम्बार ।