Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 347
________________ तृतीय श्राश्वासः ३२३ I १. शृङ्गाररस - जो काम ( संभोगेच्छा ) को जागृद व स्मृत करने में कारण हो और जो उत्तम प्रकृतिवाले नायक-नायिका ( राम व सीता आदि ) रूप श्रालम्बन भावों से प्रकट होता है, उसे शृङ्गाररस' कहते हैं । २. वीररस- जो उत्तम नायक से विभूषित हुआ उत्साहरूप स्थायीभाव वाला है, उसे 'वीररस' कहते हैं । ३. करुणरस - इष्ट वस्तु ( पुत्र व धनादि) के नाश से तथा अनिष्ट वस्तु के योग से प्रकट होने वाले शोक स्थायीभाववाले रस को 'करुणरस' कहते हैं । ४. हास्यरस - दृष्टिगोचर हुए. या निरूपण किए हुए ऐसे कौतूहल से, जिसमें विपरीत शारीरिक आकृति, विकृत भाषण व वस्त्रादि से कीहुई नैपथ्य ( वेष ) रचना और दस्त आदि का संचालन आदि पाया जाता है, हास्य उत्पन्न होता है एवं जिसका हास्य स्थायीभाव है, उसे 'हास्य रस' कहते हैं । ५. अद्भुतरस — लोक- विलक्षण आश्चर्यजनक वस्तुओं के सेवाले मात्र का अद्भुतरस कहते हैं, जिसका आश्चर्य स्थायीभाव है । ६. भयानकरस - भयोत्पादक सिंह व सर्प आदि को देखकर प्रकट होने वाले रस को 'भयानकरस' कहते हैं, जिसका भय स्थायीभाव है। ७. रौद्ररस - शत्रुरूप आलम्बन से प्रकट होनेवाले एवं शत्रुकृत शस्त्रप्रहाररूप व्यापार से उहीपित होनेवाले रस को 'रौद्ररस' कहते हैं, शत्रु के प्रति प्रकट किया हुआ क्रोध ही जिसमें स्थायीभाव है । 5. बीभत्सरस- दुर्गन्धित मांस व मेदा आदि वस्तुओं तथा श्मशानभूमि आदि घृणास्पद स्थानों के देखने से प्रकट होनेवाले भाव को 'बीभत्सरस' कहते हैं, जिसका स्थायीभाव घृणा है । ६. शान्तरस - राम (शान्ति) ही जिसका स्थायीभाव है एवं जो सांसारिक पदार्थों की क्षणभङ्गुरता के निश्चय के कारण समस्त वस्तुओं की निस्सारता का निश्चय अथवा ईश्वरतत्व का अनुभवरूप आलम्बन से प्रकट होता है, उसे 'शान्तरस' कहते हैं । इसीप्रकार जो काव्यरूपी वृक्ष औदार्य, समता, कान्ति, अर्थव्यक्ति, प्रसन्नता, समाधि, श्लेष, भोज, माधुर्य व सुकुमारता इन वश काव्य-गुणरूपी पृथिवी पर स्थित होता हुआ शोभायमान हो रहा है । विशेषार्थ - वाग्भट्ट' कवि ने कहा है कि 'काव्य संबंधी शब्द व अर्थ दोनों निर्दोष होने पर भी गुणों के विना प्रशस्त ( उत्तम ) नहीं कहे जाते' । वन काव्य गुणों के उक्त दश भेद हैं १ - श्रदार्य – अर्थ की मनोज्ञता उत्पन्न करनेवाले दूसरे शब्दों से मिले हुए शब्दों का काव्य में स्थापित करना 'श्रदार्य' है । उदाहरणार्थ — श्रीनेमिनाथ भगवान् ने ऐसे राज्य को, जिसके राजमहल गन्ध (सर्वोत्तम अथवा मदोन्मत्त ) हाथियों से शोभायमान हो रहे थे और जिसमें लक्ष्मी के लोला ( क्रीड़ा ) कमल के समान छत्र सुशोभित होरहा था, छोड़कर 'रैवतक' नामके क्रीड़ा पर्वत पर चिरकाल तक तपश्चर्या की । विश्लेषण - इस श्लोक में इम (हाथी), धम्बुज ( कमल) और गिरि (पर्वत) ये तीनों शब्द जब कमशः ग्रन्त्र, लोला और कीड़ा इन विशेषणपदों से अलङ्कृत किये जाते हैं तभी उनके अर्थ में मनोशता उत्पन्न होती है, क्योंकि केवल इभ, अम्बुज व गिरि पदों में बैंसी शोभा नहीं पाई जाती, यही 'औदार्य' गुण है, क्योंकि इस श्लोक के शब्द दूसरे - मनोज्ञ अर्थ के प्रदर्शक शब्दों १. तथा च वागभङ्कः कवि : अदोषावपि शब्दार्थों प्रशस्येते न येना । औदार्यं समता कान्तिरर्धव्यतिः प्रसन्नता । समाधिः श्लेव भोजोऽथ माधुर्य सुकुमारता ॥ १ ॥ २. तथा च वाग्भः कषि : पदानामर्थं चारुत्वप्रत्यायकपदान्तरैः । मिलितानां यदाधानं तदौदार्य स्मृतं सथा ॥१॥ ३. गम्भवित्राजितधाम लक्ष्मीलीलाम्बुजच्छत्रमपास्य राज्यम् । क्रीडागिरी रैवतके तपांसि श्रीनेमिनाथोऽत्र चिरं फार ॥१॥

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