Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 333
________________ तृतीय आधासः ३०९ *कदाचिदिशावण्डमादिविक्षुराकारसमससामन्तलाका सकलसेन्यसमालोफनोतुतमसंगतिकरेषु बलदर्शनावसरेषु निटिलतरपटिकाप्रसामघटितोडयटम् . उत्क्रोमकिशुकप्रसूनमारीजालाजटिलविषाणविकटमेकमृगमण्डलामबकर्सरीमुखचुम्बितामूलरमधुबालम् , उनियमानमतिलक्तिकोसं पोलुकुलमिव, किरिमणिविनिर्मितविदारकण्ठिकम, महामण्डलापशुण्ठित गलनालमाभ्यमीशानसैन्यमिय, कुणिकृतकालायसवलपकरालकरामोगम्, मालपिलेशयवेष्टितविटपभाग अथानन्तर ( उक्त 'शजनक' नामके गुप्तचर द्वारा की गई 'पामरोदार' मन्त्री की कटु आलोचना के श्रवणनन्तर) हे मारिदत्त महाराज ! समस्त दिङ्मयमल में वर्तमान राजाओं के सैन्यधन के प्रहए करने का इच्छुक और समस्त अधीनस्थ राजाओं के समूह को बुलवानेवाले मैंने ( यशोधर महाराज ने) किसी समय समस्त सैन्य के दर्शन-निमित्त ऊँचे महल पर आरोहण करनेवाले सैन्य-दर्शन के अवसरों पर सेनापतियों के निमप्रकार विज्ञापन श्रवण किए-हे राजन् ! ऐसा यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुआ दक्षिणदिशा से भाया हुआ सैन्य ( पल्टन ) देखिए, जिसने ललाट के उपरितन भागपर ( बांधी हुई) [लाल ] बम की पट्टी ( साफा ) द्वारा अपना उत्कट जूट ( केशसमूह ) बाँधा है, इसलिए वह ( सैन्य ) ऐसे एक शृयाले गण्डक (गेडा) समूह सरीखा प्रसीत होरहा था, जो कि विकसित पलास-( टेसू ) पुष्पमारीसमूह से वेष्टित हुए शृङ्गों से भयानक अथवा प्रकट है। जिसकी दाड़ी का केश-समूह केंची की नौंक द्वारा स्पर्श किया हुआ निर्मूल कर दिया गया था । इसीप्रकार जो खद्भिद्यमानमदतिलकितकपोलशाली है। अर्थातप्रकट हुए मद-( अभिमान ) षश श्रेष्ठ गालों से विभूषित है, इसलिए जो ऐसे गज-वृन्द (हाथी-सम) सरीखा शोभायमान होरहा था, जो कि उद्भिद्यमानमदतिलकितकपोलशाली है। अर्थात- जो उत्पन्न होरहे दानजल के तिलक से मण्डित गण्डस्थलशाली है। जिसने [ कण्ठ में ] नानाप्रकार के [ नील व शुभ माणियों से बनी हुई तीन डोरोषाली कण्ठी पहिन रक्खी थी, इसलिए जो (वह) सर्पविशेषों से वेधित बएठरूप कन्दली से सुशोभित श्रीमहादेव के सैन्य-सरीखा प्रतीत होरहा था। जिसकी भुजाओं का कथासरित्सागर में लिखा है कि नन्दराजा के पास ५९ करोष सुवर्ण मुद्राएँ थीं, अतएव इसका नाम नवनन्द था, इसी नन्द को मरवाकर चाणक्य ने चन्द्रगुतमार्य को मगध की राजगहीं पर वैटाया। किन्तु इतने विशाल साम्राज्य के भधिपति को मृत्यु के बाद सरलता से उक्त साम्राज्य को इस्तगत करना जरा देगी खीर पौ। नन्द के मन्त्री राक्षसआदि उसकी मृत्यु के बाद उसके वंशजों को राजगद्दी पर विटाकर मगध साम्राज्य को उसी वंश में रखने की चेष्टा करते रहे। इन मंत्रियों में चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त की सम्मिलित शक्ति का विरोध यकी रखता से किया। कवि विशाखदत अपने 'मुद्राराक्षस' में लिखते हैं कि शक, यवन, कम्बोज व पारसीक-आदि जाति के राजा चन्द्रगुप्त और पर्वतेश्वर की सहायता कर रहे थे। करीब ५-६ वर्षों तक चन्द्रगुप्त को मन्दवंश के मंत्रियों ने पाटलिपुत्र में प्रवेश नहीं करने दिया । किन्तु विष्णुगुप्त ( चाणक्य-कौटिल्य ) की फुटिल नीति के सामने इन्हें सिर झुकाना पड़ा। अन्त में विजयी चन्द्रगुप्त ने चाणक्य की सहायता से नन्दवंश का मूलोच्छेद करके सुगांग प्रासाद में बड़े समारोह के साथ प्रवेश किया । निष्कर्ष-चाणक्य ने विषकन्या के प्रयोग से नन्दों को भरवाकर अपनी भाशा के अनुसार पलनेवाले पन्द्रगुप्तमौर्य को भगवान्त के साम्राज्य पद पर भासोन किया । इसका पूर्ण पलान्त पाठकों को कपि पिशाखपत में मुद्राराक्षस से तथा अन्य कथासरित्सागर-आदि प्रन्धों से आन लेना चाहिये । हम विस्तार के भय से अधिक मही नियमा वाहते। * 'कदाचिदिशा दण्डमादिक्षु' का गलनालमन्यदीशानसैन्यमिव' क..।

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